तीन गलतियाँ जो सब करते हैं

आचार्य प्रशांत: सत्य को मायापति कहा गया है; समझते हैं। माया क्या? वो जो हमें प्रतीत होता है, जिसकी हस्ती के बारे में हमें पूरा विश्वास हो जाता है, पर कुछ ही देर बाद या किसी और जगह पर, किसी और स्थिति में हम पाते हैं कि वो जो बड़ा सच्चा मालूम पड़ता था, या तो रहा नहीं या बदल गया; ऐसे को माया कहते हैं।

ग़लत केंद्र से अनुपयुक्त उपकरणों के द्वारा छद्म विषयों को देखना और उनमें आस्था बैठा लेना ही माया है।

तीनतरफ़ा ग़लती होती है। जो देख रहा है, द्रष्टा या कर्ता, वो ग़लत है। वो ग़लत क्यों है? क्योंकि देखते समय, देखने के बिंदु पर उसका इरादा सत्य देखना नहीं है; उसका इरादा है इस प्रकार देखना कि देखने वाले की हस्ती बची रह जाए, कि देखने वाले का अस्तित्व अक्षुण्ण, सुरक्षित रह जाए - ये बेईमानी के साथ देखना हुआ। इस प्रकार के देखने में सत्यता, सत्यनिष्ठा बिलकुल नहीं है। जो ऐसे देख रहा है वो देखना चाह कहाँ रहा है? वो तो दिखाई देती चीज़ को भी अनदेखा कर देना चाह रहा है, झुठला देना चाह रहा है। हम कह भी नहीं सकते कि वो देखने का इच्छुक है; वो तो अपने-आपको धोखा देने का इच्छुक है। तो पहली ग़लती हमसे ये होती है कि देखने वाला ही ग़लत है।

दूसरी ग़लती होती है कि जो देखने का हमारा उपकरण है वो अनुपयुक्त है। हमारे देखने का उपकरण, सब अनुभवों को ग्रहण करने का हमारा उपकरण हैं हमारी इंद्रियाँ; और इंद्रियाँ बहुत सीमित क्षेत्र में और बहुत बँधे-बँधाए तरीके से काम करती हैं। सत्य पूरा है, और इंद्रियाँ कभी पूरी चीज़ जान नहीं सकतीं। कान पूरी बात नहीं सुन सकते, आँख सब कुछ देख नहीं सकती, मन सब कुछ याद नहीं रख सकता, बुद्धि कभी पूर्ण विवेचना नहीं कर सकती। तन हर जगह मौजूद नहीं हो सकता, तन हर समय मौजूद नहीं हो सकता। तो शरीर के जितने भी उपकरण हैं संसार को देखने-परखने और…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org