डिप्रेशन या अवसाद का कारण

कितनी दफे मैंने देखा है, जवान लोग होते हैं, जहाँ देखते हैं कि कोई इम्पोर्टेड गाड़ी सामने खड़ी है, इधर-उधर देखते हैं, और जल्दी से सेल्फी ले लेते हैं। कपड़ों की दुकानों के ट्रायल-रूम में लिखा देखा है मैंने — ‘सेल्फीज़ नॉट अलाउड (सेल्फी लेने की अनुमति नहीं है)’।

लड़के-लड़कियाँ हैं वहाँ, देखते हैं कोई महँगी ड्रेस जिसको वो खरीद नहीं सकते, उसका ट्रायल तो कर सकते हैं। वहाँ ट्रायल करने जाएँगे, ट्रायल-रूम में सेल्फी लेंगे, और वो फोटो फेसबुक पर दाल दी जाएगी। अब दस का दिल जला दिया, धुआँ ही धुआँ उठ रहा है। बाकी काम फोटोशॉप कर देती है। बैकग्राउंड ब्लर्र कर देती है, तो पता भी नहीं चला कि ट्रायल रूम में ली है ये फोटो।

तो ये जो वस्तुओं की तीव्र वृद्धि है, ये जो चीज़ों का फैलाव है, इसने हमको डिप्रेशन में डाल दिया है, क्योंकि हमारी कामनाएँ, हमारी अधूरी इच्छाएँ, हमारे सामने और बेबस होकर के, और निराश होकर के प्रकट हो जाती हैं — “मुझे भी चाहिए, मुझे मिल नहीं रहा।” और हकीकत ये है कि तुम्हें उतना चाहिए नहीं।

इस बात को समझना।

तुम्हें गुस्सा बहुत आएगा।

वो सब चीज़ें तुम्हें चाहिए नहीं, वो सब चीज़ें चाहने पर तुम्हें मजबूर किया जा रहा है। कुछ बैठे हैं शातिर, चालाक लोग, जो तुम्हें उन चीज़ों को चाहने पर भी मजबूर कर रहे हैं जिन चीज़ों की कोई अहमियत नहीं है, जिन चीज़ों को तुम कभी न चाहते। पर तुम्हें बड़ी होशियारी से, बड़ी चालाकी से मजबूर कर रहे हैं कि तुम उन चीज़ों को चाहो, और खरीदो, और उनकी जेब भरती रहे। और अधिकांशतः हम थोड़े कम समझदार लोग होते हैं। ये भी कह सकते हो, भोले लोग होते हैं। हमें उन शातिर लोगों की चलें नहीं समझ में आतीं।

वो चीज़ें सिर्फ़ बनाते नहीं हैं, वो उन चीज़ों का बाज़ार भी बनाते हैं।

बात को समझना।

चीज़ बनाना काफी नहीं होता, चीज़ों का बाजार भी बनाना पड़ता है। ‘बाज़ार’ समझ रहे हो? उसके लिये एक मांग तैयार करनी पड़ती है। आप एक फैक्ट्री में कोई चीज़ बनाएँ, इतना ही काफी नहीं है। जब आप कोई चीज़ बना रहे हो, तो आपको उसके साथ-साथ उसकी मांग भी बनानी पड़ेगी न, तभी तो उसे खरीदा जाएगा। और तभी तो आपको पैसे मिलेंगे। और वो मांग किसके मन में तैयार की जाती है? तुम्हारे। और हम शिकार हो जाते हैं।

हर चीज़ की मांग हमारे मन में तैयार की जा रही है, हर चीज़ हम पा नहीं सकते।

तो हम बहुत-बहुत निराश हो जाते हैं।

वही निराशा फ़िर एंग्जायटी और डिप्रेशन के तौर पर सामने आती है।

“मुझे ये भी चाहिए, वो भी चाहिए। मुझे भी ऐसा पार्टनर चाहिए, मुझे भी ऐसा घर चाहिए। अरे! उसको ये मिल गया…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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