डर, बीमारी जो आदत बन जाती है
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प्रश्नकर्ता१: सर, एक तो हिचकिचाहट पर सवाल है। जब कभी अच्छे सवाल होते हैं, कुछ कहना होता है, तो ये सोचता हूँ कि दूसरे लोग क्या सोचेंगे।
आचार्य प्रशांत: संजीव, तुम कितनी बार मिल चुको हो मुझसे?
प्र१: चार बार।
आचार्य: इतनी बार मिल चुके हो मुझसे तो हमारा मिलना कुछ तो रंग लाएगा ना!
प्र१: सर, कुछ फर्क नहीं लग रहा है।
आचार्य: फर्क जितना तुम्हें लग रहा है उससे ज़्यादा पड़ा है। संजीव ने उठते ही सवाल क्या पूछा है? ‘मुझे क्या है…?’
प्र१: हिचकिचाहट।
आचार्य: यहाँ इतने सारे बैठे हुए हैं, पर पहला कौन था जो बैखोफ खड़ा हो गया?
सभी श्रोता(एक स्वर में): संजीव।
आचार्य: और संजीव सवाल क्या पूछ रहा है?
(सभी मुस्कुराते हैं)
आचार्य: संजीव, बीमारी बची ही नहीं है।
प्र१: सर, लेकिन अब भी ये सोचता हूँ कि दूसरे क्या सोचेंगे।
आचार्य: अब तो राज़ खुल ही गया है तुम्हारे सामने। हम कब रुकते हैं? ये जो हिचकिचाहट है, ये कब हम पर हावी होती है? पूरी बात तुम्हें स्पष्ट हो चुकी है पहले ही। जल्दी से बताओ, कब रुक जाते हैं हम? संजीव को क्या विचार आ रहा है?
प्र१: सामने वाले का।
आचार्य: अगर सामने वाला तुम्हें जीवन में कभी मिला ही न हो, उससे तुम्हारा कोई लेना-देना ही न हो, तब भी क्या विचार उतनी ही ताकत से आयेगा कि ये क्या सोचेगा?
प्र१: नहीं!
आचार्य: तो अभी संजीव ने एक दूसरी बात भी कही कि मुझे इनके साथ पाँच दिन रहना है। अब हफ्ते में पाँच दिन रहना है तो संजीव को उनसे कुछ चाहिए। क्या चाहिए?
प्र१: साथ चाहिए।
आचार्य: बिल्कुल ठीक कहा, संजीव को उनका साथ चाहिए, स्वीकृति चाहिए। संजीव चाहते हैं कि वो स्वीकार्य रहें। निर्भर हो गये ना। असल में तुम्हें उनकी मान्यता की ज़रूरत है। मान्यता समझते हो? आपको पहचान चाहिए। तुम्हें उनसे एक तरह का प्रमाणपत्र चाहिए। तो तुम निर्भर हो कि इनको ही तो प्रमाणपत्र देना है, इनको मैं नाराज़ कैसे कर दूँ और सही बात है। कोई भी अपने मालिकों को नाराज़ नहीं कर सकता। अपने मालिकों को नाराज़ करना तो बड़ा मुश्किल है।
तुमने मालिक बनाये क्यों? उन्होंने कहा था आकर कि हमें मालिक बनाओ? मालिक बनाया क्यों किसी को? पहले किसी को मालिक बनाओगे, उस पर आश्रित हो जाओगे, चाहोगे कि उससे कुछ मिल जाये। उससे मुझे इज्ज़त मिल जाये, उससे मुझे अनुमोदन मिल जाये, ये सब…