डर को कैसे छोड़ें

हमरी करो हाथ दै रक्षा॥

पूरन होइ चित की इछा॥

तव चरनन मन रहै हमारा॥

अपना जान करो प्रतिपारा॥

~ चौपाईसाहब (नितनेम)

अर्थात, हे! अकाल पूरक, अपना हाथ देकर मेरी रक्षा करो। मेरी मन की यह इच्छा आपकी कृपा द्वारा पूरी हो कि मेरा मन सदा आपके चरणों में जुड़ा रहे। मुझे अपना दास समझकर मेरा हर तरह प्रतिपालन करो।

प्रश्नकर्ता: मेरा मन भी ऐसे ही पुकार कर रहा है। मगर इस डरे हुए मन और उसमें चल रहे कुविचार का क्या उपाय है? डर को अपने से दूर कैसे रखें? सुरक्षा की तलाश में ही मन रहता है और तरह-तरह के विचार मन में आते रहते हैं। डरे हुए मन का क्या उपाय है?

आचार्य प्रशांत: डर रहेगा, विकास! डर है तभी तो तुम्हें निर्भयता की आस है, डर है तभी तो अध्यात्म है। तुम हो तो डर है, डर रहेगा। डर नहीं रहा तो फिर ये प्रश्न भी नहीं रहेगा और तुम भी नही रहोगे। डर नहीं है तो कोई साधना नहीं, कोई साधक नहीं। कोई यह न पूछे कि “डर से छुटकारा कैसे मिलेगा?” कोई ये न पूछे कि “डर का समूल विनाश कैसे होगा?” समझो!

डर की अपनी एक जगह है और उस जगह पर डर है। ये जीवदेह की विवशता है। बड़ी दुस्सह अनिवार्यता है कि डर का अपना एक अधिकारक क्षेत्र है और रहेगा। तुम उस क्षेत्र को मिटाने की बात नहीं कर सकते; तुम बस ये पूछ सकते हो कि तुम वहाँ कैसे न जाओ, कैसे न रहो। साफ़ से साफ़ घर में भी कुछ जगहें होती हैं जो अशुचितापूर्ण होती है। मंदिरों में भी शौचालय तो होते हैं न? किसी तीर्थ में भी चले जाओ, तो वहाँ कुछ जगहें…

--

--

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org