डर और सावधानी में क्या रिश्ता है?
दो-तीन बातें हैं, उन्हें समझ लेंगे तो स्पष्ट हो जाएगा। सावधानी कभी-भी मन में डेरा डालकर नहीं बैठती। तुम गाड़ी चला रहे हो, चला रहे हो, सामने कोई आ गया, तुम क्या करते हो? ब्रेक लगा देते हो। और फ़िर वो व्यक्ति पीछे छूट गया। क्या तुम उसके बारे में सोचते रहते हो, सोचते रहते हो, सोचते रहते हो?
सावधानी तात्कालिक होती है, उसी समय की।
वो अपना कोई अवशेष पीछे नहीं छोड़ती है।
सावधानी कुछ और नहीं है — जागरूकता है, सजगता है।
“मैं जगा हुआ हूँ”- जगा होना ही सावधानी है ।
उसके लिए कोई विशेष प्रयत्न नहीं करना होता।
अपने को कुछ-का -कुछ समझ लेना, अपने से परिचित न होना।
यही सब धूल है।
तो सावधानी की ओर तुम्हें प्रयत्नपूर्वक नहीं जाना पड़ेगा। तुम ये नहीं कहोगे कि — “मैं सावधानी कर रहा हूँ।” सावधानी तो स्वभाव है। सावधानी का ही दूसरा नाम है — सजगता। “मैं जान रहा हूँ।”
अगर तुम वाकई जान रहे हो, और जागे हुए हो, तो तुम्हारे सामने अगर कुछ ऐसा चला आ रहा है जिससे तुम्हारे शरीर को हानि हो सकती है, तो तुम्हें विचार नहीं करना होगा। तुम खुद ही हट जाओगे।
गाड़ी चला रहे होते हो सामने से कोई ट्रक आ रहा होता है कितने लोग विचार करते हैं कि — “अब क्या करना है?”? और अगल-बगल वालों से पूछते हैं, या जो पीछे बैठा होता है उससे, या गूगल सर्च करते हैं- सामने से ट्रक आए तो क्या करें? कितने लोग ऐसे हैं?