डर और डर में अंतर होता है

“When people do not fear what they ought to fear,
that which is their great dread will come on them”

– Lao Tzu

“जीवन के सबसे बड़े ख़ौफ़ को आमंत्रण है उस भय से विमुख हो जाना जिससे भयभीत होना ज़रूरी है।”
– लाओ-त्सु

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। लाओ-त्सु ने डर और डर में भेद किया है। मेरे अनुभव से तो डर एक ही जैसा होता है — जो मुझे अंदर से कम्पित कर दे। कृपया समझाएँ कि जो पहले तरीके का डर है, जिससे हमें डरना ही चाहिए, वह और दूसरे तरीके के डर में क्या फर्क है?

आचार्य प्रशांत: बहुत भेद है। डर एक तरह का ही नहीं, साफ़-साफ़ दो तरह का होता है। ये समझिएगा।

पहले तरीके के डर से आप परिचित हैं। पहले तरीके का डर कहता है, "कहीं ऐसा न हो कि मुझे वह न मिले जो मैं चाहता हूँ; कहीं ऐसा न हो मुझसे वह छिन जाए जो मेरे पास है।" यह हुआ पहली कोटि का साधारण, सामान्य डर – जिससे आपका परिचय खूब है। दूसरी श्रेणी के डर से आप उतने वाक़िफ नहीं होंगे। दूसरा डर कहता है, "कहीं मुझे वह मिल ही न जाए जो मुझे वास्तव में चाहिए और जिससे मैं बचता फिर रहा हूँ।"

लाओ-त्सु ने इन दोनों डरों के मध्य भेद किया है। संतों ने भी इसीलिए बार-बार आपको डरने के लिए कहा है। इसी डर से अंग्रेजी का शब्द आया है — गॉड-फीयरिंग (भगवान का डर)। डरना सीखो! उससे डरो जिससे नहीं पाया तो जीवन व्यर्थ हो जाएगा। और अहंकार उसी को पाने से डरता है। हम सब तरीक़े के छोटे-छोटे डरों में लिप्त रहते हैं, जो एक डर हमें लगना ही चाहिए उसको हमने छुपा रखा है। हम बॉस से डरते हैं, हम पुलिस से डरते हैं, पति से डरते हैं, पत्नी से डरते हैं, साँस से डरते हैं, ससुर से डरते हैं, पड़ोसी से…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org