डर आता है क्योंकि तुम उसे बुलाते हो

सारा डर मूलत — यह है कि; मेरा कुछ छिन सकता है, मैं कम हो सकता हूँ और अंततः मैं ख़त्म हो सकता हूँ।

मूल रूप से सारा डर यही है और यही कारण है कि डर आदि-काल से मनुष्य की गहरी-से-गहरी वृत्तियों में से है। आदमी हमेशा डरा हुआ रहा है, यह आज की बात नहीं है। हर काल में, हर स्थान पर, हमारा जीवन बस डर की ही कहानी रहा है। हमने जो कुछ किया है, डर के कारण ही किया है, कभी प्रकट रूप से, कभी छिपे रूप से।

तुम्हें डर तब तक रहेगा जब तक तुम इस गहरी श्रद्धा में प्रवेश नहीं कर जाते कि, “मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता, मैं किसी अनजान जगह पर नहीं आ गया हूँ, मैं वहीं पर हूँ जो मेरा घर है, और कोई मुझे यहाँ से बेदखल कर नहीं सकता, मेरा कुछ नहीं बिगड़ सकता।”

ये भाव जब तक तुम में गहराई से प्रतिष्ठित नहीं हो जाता, (ज़ोर देकर) ‘मेरा कुछ बिगड़ नहीं सकता’, तब तक तुम्हें डर के कुछ-न-कुछ बहाने ज़रूर मिलते रहेंगे। जब तक तुम ये नहीं देखना शुरू करते कि, “बड़े-से-बड़ा नुकसान हो जाए तब भी मेरा कुछ गया नहीं, गहरी-से-गहरी असफलता मिल जाए मैं तब भी पूरा-का-पूरा हूँ, कष्टकर-से-कष्टकर बीमारी हो जाए, अंततः मृत्यु हो जाए, तब भी मेरा कुछ बिगड़ नहीं गया, तब तक तुम्हें डर सताएगा।” जब तुम इस मौज में आ जाते हो, तब और सिर्फ तब जीवन से डर जाता है, अन्यथा जा नहीं सकता, तुम डरे हुए ही रहोगे।

अब हम देखते हैं कि इस डर को हम और बैठाते कैसे हैं। हमने कहा डर तब नहीं रहेगा जब तुम ये जान जाओ कि तुम्हारा कुछ बिगड़ नहीं सकता…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org