टुकड़ा टुकड़ा मन!

टुकड़ा टुकड़ा मन

धरती फाटे, मेघ मिलै, कपडा फाटे डौर,

तन फाटे को औषधि, मन फाटे नहिं ठौर।

~ संत कबीर

वक्ता: धरती फट गई हो, ऐसा ताप पड़ा हो कोई वर्षा न हुई हो और धरती फट उठी हो। तो इलाज संभव है। मेघ आएगा और सींच देगा। फटी धरती दुबारा नम हो जाएगी। बड़ी समस्या नहीं है कोई। पदार्थ की बात है, पदार्थ ही आ करके हल कर देगा। ‘*कपडा फाटे डौर *’-फट गया है कपड़ा, तो सुईं, धागा, डोरी, काम हो जाएगा। फिर कोई बड़ी समस्या नहीं है। ‘तन फाटे को औषधि’ — यहाँ भी पदार्थ की बात है। औषधि आएगी, ठीक कर जाएगी। तन का रोग है, व्याधि चली जाएगी औषधि से। ‘मन फाटे नहिं ठौर’ , पर मन अगर फट गया, मन अग टुकड़ा-टुकड़ा, खंड-खंड हो गया, तो कहाँ ठिकाना पाओगे? कोई सुईं-धागा तुम्हारे काम नहीं आएगा।

मन का फटना समझते हो? मन का फटना क्या? फटा मन कैसा होता है?

श्रोता: बंटा हुआ, विरोधाबास..

वक्ता: हाँ। बढ़िया। और विरोधाबास चारों तरफ हैं, उनको हम क्या बोलते हैं..? जहाँ विरोध ही विरोध है, और बिना विरोध के कुछ हो ही नहीं सकता? द्वैत।

जो मन द्वैत में जीता है, जो मन पदार्थ में जीता है, जो मन बस उसी को सच मान के जीता है, जो दिखाई-सुनाई देता है, जो स्पर्श किया जा सकता है, वही फटा मन है। और कोई नहीं फटा मन है। जो भी मन वस्तुओं में जिएगा, वही फटा मन है। जो भी मन इन्द्रियों में जिएगा, वही फटा मन है।

ये संभव ही नहीं है कि आप पदार्थ को ही सत्य माने, नहीं पदार्थ को असत्य नहीं कह रहे हैं। पदार्थ को असत्य नहीं कह रहे हैं।…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org