झूठ नहीं है संसार
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, कभी-कभार संसार निरर्थक लगता है लेकिन ज़्यादा समय संसार ही सच लगता है। दिल है कि मानता नहीं, क्या करें? आपके चरणो में आश्रय दो।
आचार्य प्रशांत: संसार सच लगता है तो कोई ग़लती नहीं हो गई। झूठ भी नहीं है संसार। बात सच-झूठ की नहीं है, लेनदेन की है। आप और हम बैठे हैं, यह भी संसार ही है। क्या करेंगे इसको झूठ ठहरा कर? अब इस दिए की लौ को देख रहा हूँ, उसको बचाना चाहता हूँ (दिए को संभालते हुए)। क्या करेंगे यह साबित करके कि ना कोई दिया है, ना उसकी कोई लौ है, झूठ है सब? संसार झूठ है, दिया झूठ है, इसकी लौ झूठ है, तो फिर ये कागज़ भी झूठ है जिस पर प्रश्न लिखा हुआ है, फिर आप और मैं भी झूठ हैं।
मैंने कहा बात लेनदेन की है, संबंध क्या है संसार से। यह एक जगह है, भवन है, (दीवारों की ओर इशारा करते हुए) यह दीवारें हैं उसकी, इनसे हमारा संबंध क्या है? हमारे मन पर चढ़कर तो नहीं बैठ गईं दीवारें, हमारा सपना तो नहीं बन गईं, हमारी ज़िंदगी तो नहीं बन गईं? दीवार जब तक दीवार है तो कह लीजिए कि सच है, और दीवार जब मन बन जाए तो कह लीजिए कि झूठ है। दीवार दीवार मात्र हो और तब भी आप उसे कहें कि झूठ है, तो यह आपने अतिशयोक्ति कर दी; तो इस बात को आपने ज़रा ज़्यादा ही खींच दिया। दीवार मात्र को ही अगर झूठ ठहरा देंगे, फिर तो इस हाड़-माँस को भी झूठ कहना पड़ेगा न। तो आप इतना तय कर लीजिए कि संसार को संसार ही रहने दें। इतने कायल ना हो जाएँ संसार के कि संसार से तमाम तरह की माँगे रखें और माँगे ना पूरी हों तो रो पड़ें। दुनिया जब तक दुनिया है, कोई बात नहीं, दुनिया जब हवस बन गई तो आप नहीं।