झूठ के दाग
--
आचार्य प्रशांत: न प्रिपरेशन, न प्लानिंग, न परमिशन । सच तो है, उसकी क्या तैयारी करनी। झूठ की ही तैयारी होती है।
दुनिया की कोई ताक़त तुमसे वो नहीं करवा सकती जिस बारे में तुम्हें स्पष्टता है। तुम चाय पी रहे हो, उसमें तुम्हें दिख गया कि मक्खी है, तो क्या तुम मुझसे पूछोगे कि सर, चाय में मक्खी हो तो मक्खी फेंकना ज़रूरी है क्या? क्या पूछोगे मुझसे? नहीं पूछोगे ना? तुम उसे फेंक दोगे, क्योंकि तुम्हें पता है कि ये मक्खी है।
बात, न झूठ की, न सच की। बात ये है, कि क्या मुझे पता है? अगर मैं जान रहा हूँ, कि वो झूठ कहाँ से आ रहा है, तो मैं खुद ही उसे नहीं बोलूँगा। य कोई आदर्शों की बात नहीं है। ये कोई वो भी बात नहीं है कि बचपन में सिखाया गया था तो तोडूँ कैसे कि सदा सच बोलो। ये सब ऐसी कोई बात नहीं है। मैं तुमसे कह रहा हूँ कि जो तुम्हें झूठ बोलने पर विवश करे, उसने तुमको ग़ुलाम बना लिया। क्या तुम ग़ुलाम बनना पसंद करते हो?
पर ये तुम्हें समझ में आए तो ना। हम तो राह चलते से भी झूठ बोल देते हैं। ज़बरदस्ती बोल देते हैं। और हम समझ भी नहीं पाते कि इस झूठ बोलने में हम कितने छोटे हो गए। ये एक भ्रम है और दूसरा भ्रम हमें ये होता है कि झूठ बोल दिया तो बात आयी गयी हो गयी। कोई बात आयी गयी नहीं हो गयी। जिस मन ने झूठ बोला वो मन अब तुम्हारे साथ रहेगा। तुम्हारा मन चोर का मन हो जाएगा, झूठे का मन हो जाएगा। और उस मन के साथ तुम्हें ही रहना है। तुम्हें ही ज़िंदगी बितानी है, उस मन के साथ। तुममें से कितने लोग एक झूठे मन के साथ ज़िंदगी बिताना चाहते हो? हर झूठ मन पर एक दाग छोड़ के जाता है। उसी समय, फल उसी समय मिल जाता है।
तुम में से कितने लोग, ऐसे मन के साथ जीना चाहते हो? जिस पे धब्बे ही धब्बे लगे हों — गंदा, बदबूदार। कपड़े में बदबू आ रही हो तो कहोगे, “बदल दो, बदल दो।” और मन से बदबू आ रही हो तो?
अब ये बात राकेश, पढ़ाने की नहीं है, ये बात समझने की है। कि मैं समझ जाऊँ कि झूठ क्या है। क्या मैं ये समझता हूँ कि झूठ क्या है? क्या मैं समझता हूँ, सच में समझता हूँ? हम तो सच भी बोलते हैं तो दबाव में बोलते हैं, क्योंकि अगर झूठ पकड़ा गया तो बदनामी हो जाएगी। ठीक है ना? अकसर जो हमारा सच होता है, किसलिए होता है? तुमको अगर पता चल जाए कि तुम्हारी अंक-सूची सत्यापित नहीं होने वाली तो तुममें से कोई ऐसा नहीं है जो पिच्यानवे प्रतिशत से नीचे लिखे अपने सी वी में। तो अगर वहाँ लिख भी देते हो, कि मेरे पास तो ये गरीबी के बासठ परसेंट हैं बस; तो वो इसलिए लिख देते हो कि तुम्हें डर है कि अगर झूठ लिखा तो कहीं पकड़ा ना जाए आगे। तुम्हारा सच, सच जैसा नहीं है, वो भी झूठ है। क्योंकि उसमें कोई समझ नहीं है। ना सच, ना झूठ, समझ समझ।
नासमझी में जो सच भी बोला जाए, वो…