झूठा प्रेम
हमने सब झूठी चीज़ों को प्रेम का नाम दे दिया है — “मुझे तुमसे एक आकर्षण हो गया क्योंकि मेरी एक ख़ास उम्र है और तुम्हारी भी एक ख़ास उम्र है। इस उम्र में शरीर की ग्रंथियाँ सक्रिय हो जाती हैं।” सीधे-सीधे ये एक शारीरिक आकर्षण है, यौन आकर्षण है। मैं इसको क्या नाम दे देता हूँ? मैं बोल दूँगा, “ये प्रेम है।”
क्या ये प्रेम है?
पर नाम हम इसे प्रेम का ही देंगे।
इसी तरीक़े से जब बच्चा पैदा होता है, माँ का उससे मोह है। उस मोह को ममता का नाम दिया जाता है। ‘मम’ शब्द का अर्थ समझते हो?
‘मम’ माने ‘मेरा’
‘ममता’ का अर्थ भी प्रेम कतई नहीं है। ममता का अर्थ है, “ये चीज़ मेरी है, इसलिए मुझे पसंद है।” हम उसे क्या नाम दे देते हैं? हम कह देते हैं — माँ का बेटे से प्रेम है। वो प्रेम नहीं है, वही बच्चा जिससे आज उसको इतनी ‘ममता’ है, छः महीने बाद पता चले कि बच्चा अस्पताल में बदल गया था, तो क्या करेगी वो? इसी बच्चे को उठाकर कहेगी कि “मेरा बच्चा बदल कर लाओ।” होगा कि नहीं होगा? क्या ऐसा नहीं होता? छः महीने बाद अगर माँ को पता चले कि बच्चा बदल गया था तो क्या इसी को रखे रहेगी या अपने वाले को ले आएगी? अगर वो मिल जाएगा तो उसको ले आयेगी!
जीवन जीने के दो ढंग हैं - ‘प्यार’ में जियो या ‘व्यापार’ में जियो!
हमने प्यार वाला ढंग कभी जाना नहीं, हमने व्यापार का ढंग ही जाना है — “तू मेरे लिए ये कर और मैं तेरे लिए वो करूँगा।” इसलिए हम अपेक्षाओं में ही जीते रहते हैं। हर चीज़ से हमारी अपेक्षा है। हमें तो अपने आपसे भी बड़ी अपेक्षाएँ…