ज्ञान और भोग साथ नहीं चलते
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संयुक्तमेतत्क्षरमक्षरं च व्यक्ताव्यक्तं भरते विश्वमीशः।
अनीशश्चात्मा बध्यते भोक्तृभावाज्ज्ञात्वा देवं मुच्यते सर्वपाशैः॥
~ श्वेताश्वतर उपनिषद् (श्लोक ८)
अनुवाद: नश्वर जगत और अनश्वर चेतना के संयोग से निर्मित यह सम्पूर्ण व्यक्त और अव्यक्त विश्व का पोषण वह परमात्मा करता है। जीवात्मा संसार के विषयों का भोक्ता होने के कारण उसमें फँसता है, परन्तु परब्रह्म का ज्ञान होने पर सभी बंधनों से मुक्त हो जाता है।
आचार्य प्रशांत: ज्ञान और भोग, ये दोनों साथ-साथ चलते नहीं हैं। जीवात्मा की पहचान ही यही है कि उसे संसार का ज्ञान नहीं है पर उसे संसार के भोग की बड़ी लालसा है। अज्ञान, भोग, इन्हीं से तीसरा शब्द जोड़ लो — बंधन। तुम जिस चीज़ को जानोगे नहीं उसे ही भोगना चाहोगे, और जिस चीज़ को तुमने भोगा, वो चीज़ ही तुम्हारा बंधन बन जाएगी।
और इन तीन से पहले भी अगर कुछ रखना चाहो तो वो भी बताए देते हैं। इन तीन से पहले आता है — अपने विषय में अज्ञान। चूँकि अपने विषय में अज्ञान है इसीलिए जो तुम्हें भोग्य वस्तु लग रही है उसके विषय में अज्ञान है, उस अज्ञान से है फिर भोग की लालसा, और वहाँ से है बंधन। तुम चूँकि स्वयं को नहीं जानते इसीलिए जो भोग्य वस्तु है वो तुमको बड़ी आकर्षक लगती है। मूल लालसा तो यही है न, कि उससे कुछ मिल जाएगा? वो लालसा ही तुम्हें इसलिए है क्योंकि तुम्हें ख़ुद अपना कुछ पता नहीं है।
जैसे कोई व्यक्ति बहुत बीमार हो, लेकिन वो अपने शरीर को ही नहीं जानता, ज़रा भी; वो दवाई की जगह मिठाई खरीद रहा हो। जो ख़ुद को नहीं जानता वो ये भी नहीं जानेगा न कि भोग्य वस्तु उसके काम आएगी कि नहीं आएगी। बीमार आदमी अगर अपने शरीर को नहीं जानता तो फिर वो ये भी नहीं जानता न कि किस चीज़ का भोग करूँ। तो वो दवाई की जगह मिठाई का भोग करने पहुँच जाता है।
मिठाई मीठी तो होती ही है, और जब शरीर में कई तरह के कष्ट हों, बीमारी हो, उस समय पर अगर ज़रा स्वाद मिल रहा हो, मिठास मिल रही हो, राहत, तो वो और भाती है। दर्द बढ़ता जा रहा है, दर्द बढ़ता जा रहा है, पर दर्द का उपाय पता नहीं; तो दर्द जितना बढ़ रहा है उसी अनुपात में मिठाई का भोग बढ़ रहा है, और मिठाई का भोग जितना बढ़ रहा है, दर्द और ज़्यादा बढ़ रहा है, क्योंकि उस भोग से दर्द कम तो होने का नहीं।
समझ में आ रही है बात?
भोग ही बंधन है, क्योंकि भोग काम नहीं आता। हम सोचेंगे जो चीज़ हमें लाभ देती है वो हमारा बंधन बन जाती है, ना। भोग हमारा बंधन बनता ही इसीलिए है क्योंकि वो लाभ नहीं देता।
भोग के बारे में केंद्रीय बात समझिएगा; भोग की सम्भावना अपरिमित होती है, आप कितना भी भोग सकते हैं न…