ज्ञान और भक्ति में क्या श्रेष्ठ?
निर्पंथी को भक्ति है, निर्मोही को ज्ञान। निर्द्वंद्व को मुक्ति है, निर्लोभी निर्वाण।। ~ कबीर साहब
आचार्य प्रशांत: चार हिस्से हैं इसके, चारों को अलग-अलग बोलिए। एक आदमी पहले एक ही बोले, फिर अगला दूसरा।
“निर्पंथी को भक्ति है” — क्या अर्थ हुआ?
प्रश्नकर्ता१: सर, यहाँ निर्पंथी से अर्थ होता है किसी धर्मविशेष पर विश्वास न रखने वाला, स्वधर्म पर चलने वाला। जो अपनी समझ से अपने धर्म को चुनता है, वही भक्ति कर पाएगा।
आचार्य: पंथ में क्या दिक्क़त होती है?
प्र१: सर, पंथ दूसरों का दिया हुआ होता है। बाहर से आता है, वो सभी के लिए एक जैसा नहीं हो सकता।
आचार्य: हम जिनको आमतौर पर इज़्म बोलते हैं, वो क्या है? आपने अपने विद्यार्थियों को इज़्म पर कोई जवाब दिया था अभी, वो क्या था? वो धर्म था कि पंथ था?
प्र१: पंथ की तरह ले लिया जाता है। उसकी जगह समझदारी है तब तो कुछ हो सकता है। नहीं है तो फिर वो पंथ बन जाता है।
आचार्य: “निर्पंथी को भक्ति है” — भक्ति में पंथ बाधा कैसे बनेगा?
प्र१: सर, वो एक निश्चित रास्ते पर चला जाएगा, उसमें सरेंडर (समर्पण) होगा ही नहीं।
आचार्य: क्यों? पंथ ही सरेंडर कर दिया। बुद्ध ने जो बताया था, मैंने कर दिया सरेंडर , अब क्या दिक्क़त है?
मतलब पंथ होते हुए भक्ति हो सकती है न।