ज्ञानी वो जिसके लिए अब कुछ भी आफ़त नहीं है
मन के निरोध की कोशिश वैसी ही है जैसे मैं चल-चल कर रुकने की कोशिश करूँ। मन को रोकने की कोशिश वैसी ही है जैसे की मैं ख़ूब सोचूँ कि कैसे न सोचा जाए। मन को रोकने की कोशिश वैसी ही है जैसे मैं कोयला लेके किसी दीवार को साफ़ करने की कोशिश करूँ।
हम क्यों भूल जाते हैं कि कोशिश करने वाला कौन है। हम क्यों भूल जाते हैं कि हर कोशिश के पीछे उसकी वृत्ति अपने आप को ही कायम रखने की है। मन किसी भी बात के लिए…