ज्ञानमार्ग, भक्तिमार्ग और कर्ममार्ग — हमारे लिए कौन सा उचित है?
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भगवद्गीता में, अट्ठारह अध्यायों में, अट्ठारह प्रकार के योग हैं। और अट्ठारह पर भी गिनती रुक नहीं जाती।
जितने प्रकार के चित्त हो सकते हैं, जितने तरह के मनुष्य हो सकते हैं, और उन मनुष्यों की जितनी तरह की आंतरिक स्थितियाँ हो सकती हैं, सबके समकक्ष योग का एक विशिष्ट प्रकार रखा जा सकता है। तो अट्ठारह को ‘अनंत’ जानो। अनंत भाँति के योग हैं। तुम्हारे लिए कौन-सा अनुकूल है? अपने चित्त की दशा देखो।
और प्रयोग करना पड़ेगा। अर्जुन को भी अट्ठारह बताने पड़े, और तब जब सामने विशेषज्ञ बैठे हुए थे, योग-विशारद बैठे हुए थे। तो भी अर्जुन पर कम-से-कम अट्ठारह प्रयोग करने पड़े, तब जाकर आधी-पौनी बात बनी।
तो आपको तो अपने ऊपर बहुत प्रयोग करने पड़ेंगे, लगातार आत्म-अवलोकन करना पड़ेगा। अपने चित्त की दशा को देखना होगा। कम रोशनी में आगे बढ़ना होगा। और जब दिखाई दे कि रास्ता मिल रहा है, बन रहा है, तो बढ़ते जाना होगा। नहीं तो लौटना होगा, कोई दूसरा रास्ता आज़माना होगा।
सूत्र ये है कि –
समाधान समस्या में ही छुपा होता है।
योग, वियोग में ही छिपा होता है।
ईमानदारी से अगर आप देख पाएँ कि आपके मन की संरचना, दशा और दिशा क्या है, तो कहाँ उसको शान्ति, और पूर्णता मिलेगी, ये भी आपको स्वतः ही स्पष्ट होने लगेगा।
उसी शान्ति और पूर्णता का दूसरा नाम ‘योग’ है।
कौन-सा योग अनुकूल है आपके लिए, ये जानने के लिए, सर्वप्रथम आपको स्वयं को जानना पड़ेगा। और ‘स्वयं को जानने’ से मेरा मतलब है — अपना चित्त, अपने कर्म, अपने विचार, अपने भाव, इनके प्रति बड़ी सत्यता रखनी होगी।
खुलकर के जानना होगा कि जीवन में चल क्या रहा है।
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