जो सुख साधु संग में!
राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय |
जो सुख साधु संग में, सो वैकुंठ न होय ||
~ संत कबीर
वक्ता: एक आदमी की कहानी से शुरू करूँ| उसको बड़ा शौक था यह देखने का, कि स्वर्ग कैसा होता है, वैकुंठ कैसा होता है| तो कहते है कि उसने ईश्वर से बड़ी फ़रियाद की कि ‘एक बार दिखा दो, ऐसा तो मैं हूँ नहीं कि स्वर्ग में ठिकाना मिल सके पर झलक तो दिखा सकते हो’| एक बार दिखा दो कि कैसा होता है स्वर्ग| तो कहा ‘’चलो ठीक है एक बार देख लो|’’
तो स्वर्ग के दरवाज़े खोले गए, वो अन्दर आया| देखा, पहला आदमी बैठा हुआ है एक पेड़ के नीचे, वो क्या कर रहा है वहाँ बैठ करके? वो वहाँ बैठ करके भगवद्गीता पढ़ रहा है| उसने कहा अच्छा ठीक है| फिर आगे गया, देखता है तीन लोग आमने-सामने बैठे हुए हैं, बोला ‘’यह क्या कर रहे हैं?’’ यह उपनिषदों पर चर्चा कर रहे हैं, तो उसने कहा अच्छी बात है| फिर थोड़ा और आगे गया, तो देखता है कि एक आदमी अकेला बैठा हुआ है, सजदे में झुका हुआ है, सामने क़ुरान राखी हुई है| वो उसका माथा ठनकने लगा| बोलता है किताबें ही किताबें! यह चल क्या रहा है? आगे जाता है वहाँ देखता है, वहाँ बाइबिल पर सत्संग चल रहा है| अब वो चकराता है, बोलता है ‘‘यह इतनी किताबें यहाँ कर क्या रहीं हैं? स्वाध्याय, सत्संग, यही सब चल रहा है यहाँ पर|’’
तो एक आदमी को पकड़ता है, वो जा रहा होता है, उसके हाथ में भी एक ग्रन्थ है| उसको पकड़ता है, पीछे से बोलता है, ‘भाई साहब’, बोलता है, ‘क्या?’, वो बोलता है ‘यह स्वर्ग ही है न?’, बोलता है ‘हाँ! है तो स्वर्ग ही’, बोलता है, ‘अगर यह स्वर्ग है, तो अब आप लोग यह सत्संग किसलिए कर रहे हो? यह ग्रन्थ किस लिए पढ़ रहे हो, यह शास्त्र किस लिए पढ़ रहे हो, “यह तो इसलिए पढ़े जाते हैं न कि स्वर्ग मिल सके!”, फिर आपके हाथ में ये ग्रन्थ अब क्या कर रहा है?’
उस व्यक्ति ने जवाब दिया, ’यही तो स्वर्ग है!’
यही तो स्वर्ग है| ग्रन्थ, साधु, सत्संग; यही तो स्वर्ग है| तुम्हें क्या लगा था इससे गुज़र कर स्वर्ग तक पहुँचोगे| वो स्वर्ग मात्र एक कल्पना है; वो स्वर्ग मात्र तुम्हारी वासना है| इस ग्रन्थ में डूबना ही तो स्वर्ग है, और कौन सा स्वर्ग होता है?
सत्संग ही तो स्वर्ग है, इसके अलावा और कोई स्वर्ग नहीं होता| तुम किन सपनों में जी रहे हो? कि कोई परलोक मिलेगा? कहीं और जाकर के तुम्हें कोई आनंद युक्त ठिकाना मिलेगा?
जो है वो यहीं है| यही नरक है, यही स्वर्ग है|
‘जो सुख साधु संग में, सो वैकुंठ न होय,
साधु ही वैकुंठ है, और जिसने साधु की संगत के अलावा वैकुंठ की कोशिश की उससे बड़ा मूर्ख कोई नहीं हो सकता| जिसने सामने जो परमात्मा है, सामने जो राम है उसको छोड़ करके किसी और राम को तलाशा, उससे बड़ा मूर्ख नहीं हो सकता|
*‘राम बुलावा भेजिया, दिया कबीरा रोय,*’ बिलकुल ठीक रो पड़े कबीर, कोई नकली राम ही होगा जो बुलावा भेजता होगा; असली राम तो प्रस्तुत है, वो बुलावा क्या भेजेगा| वो कहीं और है ही नहीं, वो सामने है| साधु के रूप में सामने है|
कबीर को और कौन सा राम मिलेगा, जब तक कबीर, ‘कबीर’ है, तब तक अनिर्वाच्य, अदृश्य, कालातीत, निराकार, अरूप राम जैसा कुछ हो नहीं सकता, और यदि ऐसा कुछ है भी तो वो भी मात्र मन के लिए शब्द भर है| एक कल्पना- उस कल्पना को न तुम खा सकते हो, न ओढ़ सकते हो, न पहन सकते हो, न उसमें कोई रस है| वो कल्पना तुम्हें जीवन नहीं दे पाएगी| निराकार, निर्गुण तुम्हें कुछ नहीं दे सकता| उसकी कोई उपयोगिता नहीं है|
ध्यान से समझिए इस बात को! तात्विक रूप से, आत्यंतिक रूप से, पारमार्थिक रूप से वो सत्य होगा| पर तुम क्या करोगे पारमार्थिक सत्य का? तुम देह, तुम संसार में, तुम विचारों में तैरते हो| तुम्हें तो सदृश्य कोई चाहिए; ऐसा राम जो सामने बैठा हो|
ऐसा राम जिसकी न बात हो सकती, न चीत हो सकती है; जिसको न छू सकते हो| जिसके बारे में बोलना भी एक विरोधाभास है, एक पैराडॉक्स है| वो राम तुम्हारे किस काम का?
कि तुम कहो निर्गुण है, जहाँ तुमने कहा निर्गुण है तहाँ तुमने उसे एक गुण दे दिया| कि तुम कहो अनाम है, उसका कोई नाम नहीं हो सकता और जैसे ही तुमने कहा कोई नाम नहीं हो सकता, वैसे ही कोई नाम दे दिया| कि तुम कहो अनिर्वाच्य है और जैसे ही कहा अनिर्वाच्य है तुमने वाचा का उपयोग कर लिया| यह राम नहीं आएगा किसी काम!
तो इसीलिए कबीर कह रहे हैं, ‘जो सुख साधु संग में, सो वैकुंठ न होय’, यही तो वैकुंठ है इसके अलावा कौन सा वैकुंठ पाओगे? और उसका उल्टा भी उतना ही ठीक है, यही तो नरक है! इसके अलावा कौन सा नरक पाओगे?
आनंद में डूबे हो तो वैकुंठ है| और कष्ट से, दुःख से, मोह-मत्सर से भरे हो तो बर्बादी है| अद्वैत को पाने का एक ही तरीका है, द्वैत में पूरी तरह डूब जाना क्यूँकी द्वैत के अतिरिक्त और कुछ है नहीं| तुम नहीं कह पाओगे कि अद्वैत है|
तुम जो हो, जैसी दुनिया है तुम्हारी, जो उपकरण है तुम्हारे पास जाने के, समझने के| तुम जब तक हो तब तक मात्र द्वैत ही है और जिसने द्वैत को जान लिया, वो घुल करके अद्वैत में प्रवेश कर जाता है| पर अगर किसी ने यह सोचा, कि वो बाय-पास कर लेगा, तो वो पागल है! जो सोचें कि साधु से बच लेगा और राम को पा लेगा, वो पागल है! तुम्हें तो साधु ही मिलेगा, हाँ! साधु तुम्हें कुछ ऐसा गला देगा की तुम राम हो जाओगे| तो साधु को ही राम जानो, तुम्हारे लिए वही राम है और किसी राम की उपासना की कोई आवश्यकता नहीं है|
उस दिन कह रहे थे न संत कि, ‘देखो दुनिया दीवानी पूजें पाथर-पानी’| क्या पागल दुनिया है| पत्थर पूजती है, मूर्ती| पानी पूजती है, गंगा| सशरीर सामने साधु खड़ा रहता है, उसको नहीं पूज रही है| मंदिरों में जाती है नदियों के पास जाती है, पागल हो गयी है!
उसी बात को कबीर ने और धार के साथ कहा है| कि राम बुलावा भेजता है तो यह तो छोड़ ही दो, की मैं स्वीकार करता हूँ या अस्वीकार, मैं रो पड़ता हूँ, ये क्या अभाग घटा मेरे साथ! राम ने बुला लिया!
कोई कबीर चाहिए! बड़ी हिम्मत की बात है यह कहना| (व्यंग करते हुए) कि आज मेरे लिए बड़े अभाग का दिन है, राम ने बुलाया है!
बड़े हिम्मत का वक्तव्य है यह! जिसको राम अभी है, उपलब्ध है, उसके लिए कौन सा बुलावा? कहाँ को जाना? कैसी प्रतीक्षा? और अब किस से मिलना? यह रहा राम, यह रहा राम और यह रहा राम!
हम अच्छे से जानते हैं कि राम से तुम्हें कौन मिलवा सकता है? मात्र राम ही| बात ठीक है न?
अभी कल ही कहा है, कि उस तक जाने का रास्ता मात्र वही बता सकता है| राम तक जाने का रास्ता मात्र राम बता सकता है| तो अगर कोई मिला है ऐसा जो तुम्हें राम तक ले जा रहा है, तो निश्चित बात है कि वो कौन है?
राम ही तो है और कौन है? इसलिए कबीर रो रहे हैं कि जब राम सामने बैठा है तो यह किस और राम का बुलावा आ गया? असली तो ये बैठा है! इसी ने राम से मिलाया तो अब कौन सा राम बुला रहा है मुझे? नहीं जाना है, कहीं नहीं जाना है| इसी बात को बुल्लेशाह ने कहा था न, ‘तुस्सी आप ही आये सारे हो, क्यों कहिये तुस्सी न्यारे हो ’ जब तुम ही तुम हो तो ऐसा कैसे कहते हो की तुम अलग हो इस सब से? जब तुम ही तुम हो, तो तुम अलग कहाँ होगे? कैसे बैठे होगे? ‘क्यूँ ओहले बें-बें झाकीं दा, अह पर्दा किस्दों राखि दा’, संभव ही नहीं है कि तुम कहीं छुप करके बैठे हो और पर्दा रखे रहो| तुम्हारे अलावा और है कौन? तो कोई बुलावा नहीं आएगा| कोई और लोक नहीं है| कोई राम नहीं है जो दर्शन देगा| जो है यहीं है| जिसने यहाँ खोज लिया, जिसने यहाँ पा लिया, उसको मिल गया|
श्रोता: दूसरी लाइन में बोला ‘वैकुंठ न होए’ वो ‘न’ क्यूँ बोला था?
वक्ता: जो सुख साधु संग में, सो वैकुंठ न होय,- जो सुख यहीं सामने है, वो वैकुंठ में नहीं हो सकता| वैकुंठ तलाश है, वैकुंठ कल्पना है, वैकुंठ भविष्य है| हम सब अपने-अपने ख़ास व्यक्तिगत वैकुंठों की तलाश में ही हैं| हम में से कोई ऐसा नहीं है, जिसे उसके निजी वैकुंठ की तलाश नहीं है| किसी का वैकुंठ है मोक्ष, किसी का वैकुंठ है पैसा, किसी का वैकुंठ है प्रेम, काम| किसी का कोई और वैकुंठ है| वैकुंठ का अर्थ है, ‘कुछ ऐसा जो मिल जाए, तो तर जाऊँ’|
एक विचार है वैकुंठ; एक दूर का तारा|
श्रोता: कुछ ख़ास है उसके बारे में?
वक्ता: कल्पना है|
श्रोता: और आ भी उससे रही है, भय से ही आ रही है| कुछ ख़ास नहीं है|
वक्ता: हाँ, बिलकुल, बिलकुल| कबीर कह रहे है राम अभी है सामने बैठा है, यहीं| ना ही किसी वैकुंठ में मिलेगा, न आगे है, न पीछे है| वो कामना नहीं है मेरे भविष्य की| वो अभी रहा, और अभी पाया तो पाया| और यह सोचता रह गया कि, यह करूँगा, वो करूँगा, तब मिलेगा, तो सोचता ही रह जाएगा| वैकुंठ ऐसा है जैसे क्षितिज| क्षितिज समझते हैं? दूर जहाँ तक आसमान दिखाई देता है; जहाँ पर आसमान ज़मीन से मिल जाता है| उसकी ओर जितना दौड़ो, वो उतना दूर होता जाता है| वो है वैकुंठ|
कबीर कह रहे हैं वैकुंठों से सावधान!
अब यह हमारे ऊपर है कि हम ध्यान से देखें की किन वैकुंठो का पीछा कर रहे हैं हम| यह पक्का है हम सब की ज़िन्दगी में कुछ है ज़रूर, जिसका हम पीछा कर रहे हैं| राम वैकुंठ में पाने की वस्तु नहीं है| राम सर्वव्यापी हैं| राम अन्तर्यामी है| राम अभी हैं, अभी, कुटस्थ! सब उसी से उद्भूत होता है और कोई ज़रूरत नहीं है, उस महत आयाम के लिए नए-नए शब्द गढ़ने की क्यूँकी, कितने भी नए शब्द गड़लो, तुम इसी आयाम में बैठ कर ही गड़ रहे हो न? तो बेकार की कोशिश है! वो वैसी ही कोशिश है, कि यहाँ से पत्थर उछालूँ और दो चार तारे अपने साथ नीचें तोड़ के ले आए| तुम कितने भी शब्द उछालो, शब्द राम तक पहुँचेंगे नहीं| उससे कहीं बेहतर है, कि शब्द उछालता रहूँ राम के लिए प्रयास करता रहूँ, उससे कही बेहतर है कि जो सामने है, जो संसार है, इसी में राम को ढूँढ निकालूँ| यहीं मिलेगा, जिसे यहाँ नहीं मिल रहा उससे कहीं नहीं मिलेगा| जिसे अभी नहीं मिल रहा, उसे कभी नहीं मिलेगा| समझ रहे हैं न बात को?
कबीर जड़ से उखाड़ देना चाहतें हैं, मन की सारी कल्पना को और कल्पनाओं में विशिष्ट कल्पना है- वैकुंठ की कल्पना, मोक्ष की कल्पना, जन्नत की कल्पना| ऊँची से ऊँची कल्पना है वो आदमी की, कि क्या होता है वहाँ पर? ‘कल्प वृक्ष|’ कल्प वृक्ष समझते हो? कि उसके पास जाकर के जो माँगोगे सो मिल जायेगा| वो कहाँ पाया जाता है, मात्र वैकुंठ में| तो यह आदमी की ऊँची से ऊँची वासना है, कि कहेंगे और मिल जाएगा, उपलब्ध हो जाएगा| कबीर कह रहे है राम वासना की वस्तु नहीं| राम कल्प वृक्ष से माँगी हुई फ़रियाद नहीं| यह बड़ा सस्ता राम है, जो इस तरीके से मिलता हो और परलोक में बैठता हो|
कबीर का राम तो लगातार कबीर के साथ है| राम का साथ होना, मतलब क्या है इस बात का? कि कबीर लगातार पूरा है| एक विलक्षण संतोष है|
वैकुंठ यदि तलाश और खोज का नाम है तो राम खोज के रुक जाने का नाम है | राम उस पूरेपन का नाम है, जिसमें अब किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं रह गयी |
यह जो शब्द है, ‘संग’, ‘सुख साधु संग में’, यह शब्द भी बड़ा कीमती है| साधु दिखने में भले, बाहर की एक मूर्ति हो, एक देह हो पर संग का अर्थ ही यही है कि वो मन को आत्मा के संग कर देता है|
साधु कौन? जो तुम्हारे मन को तुम्हारी आत्मा के संग कर दे| इसी का नाम है ‘सत्-संग|’ सत्संग और कुछ नहीं है| दूसरे व्यक्ति के निकट बैठने को सत्संग नहीं कहते|
सत्संग का अर्थ है- ‘ऐसा माहौल जिसमें तुम्हारा ही मन आत्मा के संग हो जाए’
और यही साधु की परिभाषा हो गई है| यदि व्यक्ति रूप में साधु को परिभाषित करना चाहते हो तो
साधु कौन? जिसके समीप आओ, तो अपने समीप आ जाओ; जिसके करीब आने से तुम अपने करीब आ जाते हो सो साधु, और सो ही राम भी, सब एक हैं!
श्रोता: इसी साधु को कृष्णमूर्ति गुरु बोलते हैं?
वक्ता: कृष्णमूर्ति किसी को गुरु नहीं बोलते| कहाँ पढ़ लिया तुमने? कृष्णमूर्ति न साधु की बात करतें हैं, न गुरु की बात करतें है|
लोगों ने आध्यात्मिकता को किसी और दुनिया की बातें जाना है| हमने भेद बनाए हैं, यह लोक-परलोक, मृत्युलोक –अमरलोक, कोई जब ज़्यादा आध्यात्मिक हो जाता है तो उसके लिए लोग कहना शुरू करते हैं, बड़ा ‘अदर वर्ल्डली’’ हो गया है और वो व्यक्ति भी ऐसे रहता है, जैसे उसको यह संसार दिखाई ही न पड़ता हो|
कबीर ऐसे नहीं है| कबीर किसी और दुनिया के खिलाड़ी नहीं हैं| कबीर कोई दिवास्वपन नहीं दिखाते| कबीर बहुत व्यवहारिक बात करतें है| बिलकुल मिट्टी की बात| कबीर कह रहे है, ‘मैं राम नहीं जानता, मैं साधु जानता हूँ’|
गुरु गोविन्द दोउ खड़े , काके लागूं पाय |
बलिहारी गुरु आपने , जिन गोविन्द दिया मिलाय ||
मैं गोविन्द नहीं जानता, मैं गुरु जानता हूँ; मैं राम नहीं जानता, मैं साधु जानता हूँ|
मैं कल्पनाओं में नहीं जीता; मैं तथ्य में, यथार्थ में, जीता हूँ और यह बड़े कमाल की बात है कि जिसने तथ्य में जीना सीख लिया, वो बिना माँगे ही सत्य में प्रवेश कर जाता है|
तथ्य सत्य का द्वार है|
जिसने साधु के साथ जीना सीख लिया, वो बिना राम की कामना करे ही राम के साथ एक हो जाता है और जो राम-राम करता रहा और साधु से बचता रहा, उसको ‘माया मिली न राम’| कोई दूर की कौड़ी नहीं, अभी की बात करनी है, सीधी बात करनी है|
मैं एक बात फिर से दौहरा रहा हूँ-
सत्संग वैकुंठ तक जाने का ज़रिया नहीं है, सत्संग ही वैकुंठ है | साधु राम तक जाने का ज़रिया नहीं है, साधु ही राम है | गुरु गोविन्द को पाने का ज़रिया नहीं है, गुरु ही गोविन्द हैं |
जिसने इस बात को नहीं समझा, वो अपने को ही धोखा दे रहा है|
‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।