जो बात कोई बताता नहीं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, ये तो साफ है कि जो वैश्विक समस्याऍं हैं, बड़ी समस्याऍं, जैसे ग्लोबल वॉर्मिंग (भूमंडलीय ऊष्मीकरण) या क्लाइमेट चेंज (जलवायु परिवर्तन), उनका कारण ये गलत खोज ही है, कि इंसान गलत जगह पर खोज रहा है। तो एक आइडियल वर्ल्ड (आदर्श विश्व) तो यही होगा कि ये खोज पूरी तरह से समाप्त हो जाए।

आचार्य प्रशांत: हाँ, जो चीज़ जहाँ है वहाँ पा लो। अब ऐसे समझो कि (सामने की ओर इशारा करते हुए) ये तुम्हारा लॉन (मैदान) है बाहर, ठीक है? और तुमने ज़िद पकड़ ली है कि अँगूठी तो यही पर है, क्यों? क्योंकि अगर तुमने ये ज़िद नहीं पकड़ी, तो तुम्हें ये मानना पड़ेगा कि ये अँगूठी और भी कही हो सकती है। फिर मेहनत करनी पड़ेगी ये पता करने के लिए कि अँगूठी कहाँ पर है।

लॉन अपना ही एक छोटा-सा क्षेत्र है, उसमें हमने ये कल्पना कर ली है, अपने-आपको बिल्कुल समझा दिया है कि इसी में है अँगूठी, ठीक है? ये सोच ही हमारे लिए बड़ी भयावह है कि अँगूठी लॉन में नहीं है। सोचो तो अब कितना श्रम करना पड़ेगा। लॉन में नहीं है तो अब कहीं भी हो सकती है। अब वो अज्ञात हो गई—और अज्ञात से हमें लगता है भय। लॉन में वो जब तक है, हमारे लिए वो क्या है? ज्ञात है। तो हम अपने-आपको बार-बार यही जताऍंगे कि अँगूठी लॉन में है।

अब आप निकले एक दिन खोजने, कि चलो अँगूठी लॉन में है तो हासिल ही कर लें, मिल नहीं रही है, तो आप क्या करोगे? आप ये नहीं मानोगे कि लॉन में नहीं है; आप कहोगे कि है तो लॉन में, इधर-उधर हो गई है। अब आप लेकर आ गए फावड़ा, कुदाल, खुर्पियाँ, और आप लगोगे लॉन को खोदने। ये है पर्यावरण की तबाही। तुम प्रकृति में वो खोज रहे हो जो प्रकृति में है ही नहीं। लॉन प्रकृति है; अँगूठी सत्य है। तुम प्रकृति में सत्य खोज रहे हो, और इसके नाते तुमने प्रकृति की ही तबाही कर दी।

और लॉन में खरगोश है, गिलहरी है। तुम्हें लग रहा है कि किसी खरगोश ने अँगूठी खा ली है, तो तुम्हें लग रहा है कि चलो खरगोशों को फाड़ डालते हैं; इनके भीतर से अँगूठी निकलेगी। देखो, कितनी जीवहत्या कर दी तुमने।

यही इंसान कर रहा है ना? सब जानवरों को मार डाल रहा है। वो सोच रहा है कि जानवरों को मारकर सुख मिल जाएगा, खरगोशों को मारकर अँगूठी मिल जाएगी। "क्या पता किसी खरगोश ने अँगूठी खा ली हो? तो चलो इन्हें मारते हैं, इनका पेट काटते हैं; पेट के भीतर से अँगूठी निकलेगी।"

यही काम तो इंसान दुनियाभर में जानवरों के साथ कर रहा है ना? "चलो इनको काटते हैं, इनको काटकर सुख मिल जाएगा। और जितने पेड़-पौधे हैं, सब काट दो। क्या पता किसकी, कौन-सी डाल पर अँगूठी लटकी हुई हो?"

हम यही तो कर रहे है ना? सारे जंगल काट दे रहें हैं। "और फिर सब जला दो। जला दोगे, सब राख हो जाएगा, राख में ढूँढना आसान होगा; नहीं तो ये पेड़-पौधे, पत्तियाँ बहुत फैली हुई है।" तुमने जला दिया, क्या निकली? कार्बन डाईऑक्साइड। ये ग्लोबल वॉर्मिंग हो गई।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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