जो जितना निर्भर दूसरों पर, वो उतना चिंतित अपनी छवि को लेकर
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, किसी बात को कहने में डर रहता है कि दूसरे क्या सोचेंगे।
आचार्य प्रशांत: ठीक है, तो दूसरे जो कुछ भी सोच रहे हैं, वो तो उनकी खोपड़ी में हो रहा है। दूसरों की सोच का जो भी असर हो रहा है वो तो उन्हीं की खोपड़ी पर होगा न? तुम क्यों डर रहे हो?
प्रश्नकर्ता: मैं ये सोचता हूँ कि वो ग़लत न सोचें।
आचार्य प्रशांत: उनकी खोपड़ी के अंदर क्या चल रहा है इससे तुम्हें क्या मतलब है?
प्रश्नकर्ता: अपनी इमेज (छवि) को लेकर डर रहता है कि कहीं वो ग़लत न हो जाए।
आचार्य प्रशांत: अच्छा, इमेज हो गई ग़लत, फ़िर क्या होगा?
प्रश्नकर्ता: इसी चीज़ का डर रहता है।
आचार्य प्रशांत: तो इससे क्या हो जाएगा, तुम्हारा नुक़सान ही क्या है?
प्रश्नकर्ता: नुक़सान तो कुछ नहीं है।
आचार्य प्रशांत: नहीं, नुक़सान होगा वरना तुम डरते नहीं। तुम चाहते हो दूसरे के मन में तुम्हारी छवि अच्छी बनी रहे, और तुम्हें लगता है जब कि तुम्हारी छवि ख़राब हो रही है तो तुम डर जाते हो — तो निश्चित रूप से छवि के बिगड़ने से तुम्हें कुछ तो नुक़सान दिख रहा है। क्या नुक़सान दिख रहा है? चलो, बताओ।
प्रश्नकर्ता: उस नुक़सान से कहीं असफल न हो जाएँ।
आचार्य प्रशांत: दूसरे के मन में तुम्हारी छवि बिगड़ गई तो तुम असफल कैसे हो गए?