जो गलत है, वो छूटता क्यों नहीं?

प्रश्नकर्ता: जो इतने वर्षों में सीखा, घर में रह कर, दोस्तों के साथ, शिक्षा में, उसका बल इतना है कि लगता है कि वो गलत है — ये मैं अपना एक प्रोजेक्शन (प्रक्षेपण) कर रहा हूँ; गलत लगता तो छोड़ ही देता — लेकिन बल इतना है कि उसको गिराने के लिए अक्षम पा रहा हूँ।

आचार्य प्रशांत: तो आपने समाधान बता दिया न। आपने ठीक से देखा नहीं है कि वो गलत है। और ठीक से देखना कि कोई चीज़ गलत है, उसके लिए आपको कोई विशिष्ट शक्ति नहीं चाहिए। उसके लिए आपके पास कोई दैवीय सिद्धि हो ये कोई ज़रूरी नहीं है। उसके लिए तो बस मेहनत चाहिए, उसके लिए तो जाकर आज़माना पड़ेगा, प्रयोग करने पड़ेंगे, छान-बीन करनी पड़ेगी, सवाल करने पड़ेंगे, किसी से कोई कठिन प्रश्न खड़ा कर देना होगा, तभी तो पता चलेगा न।

होता क्या है न, जब किसी बात की आपको बस साठ प्रतिशत आश्वस्ति होती है, तो बड़ी आसानी से हम बाकि चालीस प्रतिशत का दुरुपयोग करके अपने-आपको बता देते हैं कि, “अभी तो जो मामला है न वो थोड़ा-सा अनिर्णीत है, अधर में अटका हुआ है।” अनिर्णीत समझते हैं? अनडिसाइडेड*। भले ही वो जो अभी अनिर्णय है, वो निन्यानवे और एक का अनिर्णय हो, कि निन्यानवे प्रतिशत आप किसी चीज़ को लेकर निश्चित हैं, और एक प्रतिशत आपके पास संदेह अभी कोई बचा हुआ है। लेकिन जब कर्म करने की बारी आएगी, तो आप फैसला उस निन्यानवे प्रतिशत के पक्ष में नहीं लेंगे, आप उस एक प्रतिशत के पक्ष में ले लेंगे ये बहाना देकर कि “साहब, अभी तो *फ़ाइनल डिसिज़न पेंडिंग (अंतिम निर्णय बाकी) है। देखिए अभी कुछ पेंच बाकी हैं, अभी कुछ बातें सुलटनी बाकी हैं। आखिरी चीज़ अभी तय थोड़े ही हुई है।”

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org