जो कठिनतम है उसे साध लो, बाकी अपने आप साध जाएगा

प्रश्नकर्ता: कृष्ण अध्याय नौ में बताते हैं कि वे सब भूतों में समभाव से व्यक्त हैं, वहीं अध्याय दस में बताते हैं कि जो कुछ भी विभूतियुक्त, कांतियुक्त और शक्ति युक्त है, वो कृष्ण की अभिव्यक्ति है। अध्याय नौ में कृष्ण कहते हैं कि ऋग्वेद, सामवेद, अथर्ववेद मैं ही हूँ और अध्याय दस में कहते हैं कि मैं वेदों में सामवेद हूँ। अध्याय दस में श्रीकृष्ण यह भी कहते हैं कि छल करने वालों में मैं जुआ हूँ। अगर कृष्ण सर्वत्र हैं तो इतना विस्तार से बताने का क्या तात्पर्य हो सकता है? आचार्य जी, क्या ऐसा भी कुछ है जो कृष्ण की अभिव्यक्ति नहीं है? समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: कृष्ण की अभिव्यक्ति तब नहीं है जब आप उसे मानने से इंकार कर दें। प्रश्न यह नहीं है कि क्या कहीं पर कृष्ण अभिव्यक्त नहीं है, प्रश्न होना चाहिए क्या कोई ऐसा भी है जिसके लिए कृष्ण अभिव्यक्त नहीं है? अपनी ओर से तो कृष्ण अभिव्यक्त-ही-अभिव्यक्त हैं, हमारी ओर से अभिव्यक्त नहीं हैं वो। तो ऐसा निश्चित रूप से कोई है जिसके लिए कृष्ण नहीं हैं—वो हम हैं। हमें कृष्णत्व दिखाई दे तो कृष्णत्व है, हमें कृष्णत्व न दिखाई दे तो हमारे लिए तो नहीं है न।

चौथा अध्याय, ग्यारहवाँ श्लोक: कृष्ण कहते हैं कि जो मुझे जैसा देखता है, जैसा भजता है, मैं भी उसके लिए वैसा ही हो जाता हूँ।

तुम मान लो कि जगत में कृष्ण नहीं है तो जगत वास्तव में तुम्हारे लिए कृष्णहीन ही हो जाना है। कृष्णहीन जगत कैसा होगा? आनंदहीन। जो मान ले कि जगत कृष्णहीन है, जगत उसके लिए कृष्णहीन हो जाएगा। तुम जो मानोगे, तुम्हारा संसार वैसा ही हो जाएगा। और यह कृष्ण की इच्छा है, उन्होंने पूरी मुक्ति दे रखी है जीव को। वो कहते हैं कि मुझे पाना है या नहीं पाना है, तुझे यह मुक्ति भी, यह चुनाव, यह विकल्प…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org