जीव-हत्या और अपराध भाव

जिसको तुम प्रकृति कह रहे हो वास्तव में प्रकृति से थोड़ा-सा आगे कुछ है, वो सामाजिक संस्कार भी हैं। तो प्रकृति पूरी तरह से दैहिक होती है, उसको लेकर के पैदा होते हो गर्भ से और उसके बाद सामाजिक संस्कारों की भी एक तह जमती है। प्रकृति को तुम कह सकते हो ‘बायोलॉजिकल कंडीशनिंग’, सामाजिक संस्कारों को कह सकते हो ‘सोशल कंडीशनिंग’, लेकिन चाहे जैविक हो, चाहे सामाजिक हो, दोनों ही आत्मिक तो नहीं हैं।

घर में बिल्ली हो, चूहा खा जाएगी, वो चल रही है अपनी जैविकता पर — वो अपनी दैहिक प्रकृति पर चल रही है। कोई हो जो ऐसे समाज में पैदा हुआ हो जहाँ चूहे खाए जाते हैं, तो वो घर में चूहों को देखकर कहेगा, “बढ़िया! खुद आए हैं पकने के लिए,” वो पकड़ेगा चूहों को और पका डालेगा — ये सामाजिक संस्कार हो गए। क्या इनसे हटकर के भी जिया जा सकता है? क्या दूसरे जीवों के प्रति कोई आत्मिक रुख भी रखा जा सकता है? निस्संदेह रखा जा सकता है और रखा जाना चाहिए।

वो रुख क्या होगा? वो प्रत्येक परिस्थिति में अलग-अलग होगा। तुम्हारे घर में चूहे हैं, उनके प्रति तुम्हारा क्या रवैया होना चाहिए ठीक-ठीक, एग्जैक्टली, वो मैं नहीं बता सकता, पर मैं इतना ज़रूर बता सकता हूँ कि जो तुम्हारा रवैया है, वो संस्कारित नहीं होना चाहिए, कंडीशंड नहीं होना चाहिए, उससे बाहर आकर के तुम चूहों के साथ जो भी करोगे वो फ़िर ठीक ही होगा।

एक सूत्र काम का होता है कि किसी भी जीव की हत्या कम-से-कम तब तक मत करो जब तक कि वो तुम्हारी ही हत्या करने पर उतारू ना हो।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org