जीव भाव तमाम तरह की हिंसा का कारण है
प्रश्नकर्ता: जीव क्या है और हम जीवों की हत्या क्यों करते हैं?
आचार्य प्रशांत: जीव वह है जो अपने आप को शरीर मानता है। जीव वह है जो अपने आप को जीवित कहता है, जन्म के फलस्वरूप। जीव वह जिसका जन्म है, जीवन है, मृत्यु है।
जीव कौन?
जो अपने आप को मानता है देह और चूँकि अपने आप को कहता है कि मैं देह हूँ तो देह की आवश्यकता की पूर्ति के लिए वह कुछ भी करेगा, अन्य देहों का वध भी करेगा।
वह कहता है, मैं कौन हूँ?
मैं पेट हूँ और मैं पेट हूँ तो फ़िर एक ही धर्म है मेरा, पेट में आपूर्ति होती रहनी चाहिए। इसके अलावा कोई धर्म नहीं, इससे बड़ा कोई धर्म नहीं है।
न करुणा धर्म है, न प्रेम धर्म है, न विवेक की जरूरत है, न बुद्धि की जरूरत है, न त्याग चाहिए, न बैराग चाहिए; भोजन चाहिए।
तो जीव का एकमात्र धर्म होता है पदार्थ, जिसको वह भोगता है। जब धर्म ही यही है कि भोगो तो वध करने में क्या हानि? फिर वह उसको मारेगा, उसको खाएगा। जो जानवर मिलेगा उसी को खाने को तैयार है।
आप हैरत में पड़ जाएंगे अगर आप सूची बनाएं कि पृथ्वी पर इस समय इंसान कितने जानवरों को खाता है। ऐसे-ऐसे पशु-पक्षी, जीव-जंतु, कीड़े-मकोड़े, जल के, थल के, जिनका आपने नाम भी न सुना हो; वह शौक़ से खाए जा रहे हैं। उनको पकड़ा जा रहा है, उनको काटा जा रहा है, उनको भोगा जा रहा है क्योंकि हम कौन हैं?
हम तो पेट हैं, हम तो शरीर हैं और शरीर में एक लप-लपाती हुई जबान…