जीवित गुरु खतरनाक क्यों?

प्रश्नकर्ता: कभी-कभी हमें ये लगता है कि हमारे साथ गुरु हैं, मतलब हम गुरु के साथ हैं, तो हम कुछ भी कर सकते हैं।

(श्रोतागण हँसते हैं)

मन निडर हो जाता है और वो कभी-कभी गलत दिशा में जाने लगता है। लगता है कि हाँ गलत है लेकिन फिर भी मन साथ नहीं देता। बस यही आवाज़ आती है कि तुम्हारे साथ गुरु है, तुम करो।

क्या करूँ?

आचार्य प्रशांत: एक था दरोगा का बेटा। कौन? दरोगा का बेटा। वो बाज़ार में निकले और लोगों से कहे, “पता है मेरा बाप कौन है?” लोगों को पता है कि भाई दरोगा का बेटा है तो लोग दबें, कोई चीज़ मुफ्त मिल जाए, किसी पर हेकड़ी जमा दे, ये सब करे अपना। ये सब वो कर लेता था अपने बाप का नाम ले के। बाप के नाम के साथ निकलता था, खूब मज़े मारता था।

एक दिन उसके साथ बाप भी निकल लिया बाज़ार को। अब उस दिन बाप का नाम नहीं, बाप ही साथ चल रहा है, तो ये बालक महाराज पहुँचे एक मूंगफली वाले के पास। उसकी मूंगफलियाँ उठाईं मुट्ठी भर। मूंगफली वाले ने कहा, “अरे, पैसा?” बोलता है, “पता है मेरा बाप कौन है?” पीछे से बाप ने एक झन्नाटेदार दिया। जब तक बाप का नाम लेकर चलते थे तब तक बढ़िया मूंगफलियाँ मिलती थीं और आज वही हरकत करी जब साक्षात् बाप साथ था तो पीछे से पड़ा एक बिल्कुल झनझनाता हुआ। ये अंतर होता है गुरु की छवि में और साक्षात् गुरु में।

गुरु की छवि बनाकर तो तुम किसी को भी लूट लो और कोई भी मनमर्ज़ी कर लो कि, “मेरे साथ तो मेरा गुरु है! पता है मेरा गुरु कौन है?” लेकिन जब वास्तव में गुरु साथ होता है तो वो सब हरकतें नहीं कर पाओगे। इसीलिए ‘गुरु की छवि’, ‘गुरु का नाम’ बड़े काम का होता है। इसीलिए सबसे ज़्यादा काम का होता है मरा हुआ गुरु। ज़िन्दा गुरु तो बड़ी आफत होता है। वो सोने का उस दिन हो जाता है जिस दिन मर जाए। तब पूछो, क्या? “तुम्हें पता है हमारा गुरु कौन है?” और अब गुरुदेव आकर के चाँट भी नहीं लगा सकते। अब बढ़िया है!

इसीलिए गुरु से दूरी बड़े काम की चीज़ होती है, और मौत तो बहुत ही बढ़िया चीज़ है। मौत का मतलब होता है शारीरिक तल पर अब अनंत दूरी। गुरु की निकटता ख़तरनाक होती है; बात-बात पर पड़ता है — फट..! “ये क्या हो गया!” तो हम बड़ा इन्तज़ार करते हैं कि गुरु मरे तो।

ज़िन्दा गुरु ख़ाक सा, मरा गुरु लाख का।

फिर कहानियाँ निकलेंगी। “हमारे गुरुदेव थे, हमारा उनका जो रिश्ता था, तुम्हें क्या बताएँ? कितनी निकटता थी हममें और उनमें। बिना उनका मुँह देखे मैं भोजन नहीं करता था। बिना उनके पाँव दबाए मैं सोता नहीं था। तो लाना ज़रा मूंगफली देना।” अब वो मूंगफली क्या, पूरा ठेला ही तुम्हें दे देगा। तुमने कहानी ही इतनी मार्मिक बताई है।

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org