जीवन गँवाने के डर से अक्सर हम जीते ही नहीं
जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैठ।
मैं बपुरा डूबन डरा, रहा किनारे बैठ।।
~ संत कबीर
प्रश्नकर्ता: इस दोहे को जब मैं अपने जीवन के सन्दर्भ में देखती हूँ तो पाती हूँ कि मेरे सारे प्रयत्न, जवाबों को ढूँढने की राह में कम ही पड़ते हैंI अपने प्रयासों को और बेहतर कैसे बनाऊँ?
आचार्य प्रशांत: क्या कह रहे हैं कबीर? कह रहे हैं, ‘मैं बपुरा डूबन डरा, डूबने से डरा, रहा किनारे बैठ।’ और आप कह रही हैं कि “मैं अपने प्रयासों को कैसे बेहतर करूँ?” डूबने के लिए कोई प्रयास करना पड़ता है? तैरने के लिए करना पड़ता है। आप पूछ रही हैं कि, “मैंने जब भी कोशिश की खोजने की, तो मुझे मिला नहीं।” तो आप पूछ रही हैं कि “मैं और कैसे कोशिश करूँ कि पा लूँ।” और कबीर क्या कह रहे हैं आपसे? कबीर कह रहे हैं डूब जाओ।
कबीर कोई तुमसे कोशिश करने को कह रहे हैं? कबीर ने कोई ये आश्वासन दिया है कि कोशिश करोगे तो पाओगे? कबीर ने क्या कहा है? डूब जाओ। और जब तक कोशिश कर रहे हो, तब तक डूबोगे नहीं। डूबा तो ऐसे ही जाता है कि डूब गए। कोशिश करने वाले तो तैर जाते हैं न फिर, या इधर से उधर से सहायता मँगा लेते हैं। बड़ा कर्ता-भाव होता है उनमें, कुछ-न-कुछ छप-छुप कर ही देते हैं, कोई-न-कोई उनको डूबने से रोक लेता है। डूब नहीं पाते।
आप जो भी कोशिश करोगे, उससे कुछ नहीं होगा। आप ही तो कोशिश कर रहे हो न? आपकी सारी कोशिशें आपको ही मजबूत करेंगी। और यहाँ बात हो रही है हटने की, गलने की, मिटने की; मजबूत होने की थोड़े ही बात हो…