जीवन को जानना क्यों ज़रूरी है?
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी जीवन को जानना क्यों ज़रूरी है?
आचार्य प्रशांत: एकदम ज़रूरी नहीं है!
प्र: लेकिन मैंने यूट्यूब और कहीं-कहीं से देखकर कई बार जानने की कोशिश किया कि ये शरीर नहीं है, मन नहीं है, विचार नहीं है और उसके बाद फ़िर अटक जाता हूँ।
आचार्य: यूट्यूब देखना क्यों ज़रूरी है?
प्र: मन अशांत था।
आचार्य: इसीलिए जीवन को जानना ज़रूरी है क्योंकि मन अशांत है।
प्र: लेकिन उसमें जाकर तो पूरा अटक जाता हूँ।
आचार्य: तो मत आगे बढ़ो, बिलकुल ज़रूरी नहीं है!
एक तरफ़ अशांति है, न जानने पर और दूसरी तरफ़ वो उलझने हैं जो जानने के मार्ग में आती हैं। तुम इनमें से जिसको बर्दाश्त कर सकते हो कर लो। किसी एक को तो बर्दाश्त करना ही पड़ेगा।
जीवन को नहीं जानते तो तुम ही कह रहे हो कि अशांति रहती है। जीवन को जानने निकलते हो, उलझाव आ जाते हैं। बोलो किसको झेलना है? या तो ये कह दो कि, “उलझाव बहुत बुरे लगते हैं तो मैं जीवन की अशांति को झेलने के लिए तैयार हूँ”, तो ठीक है अगर जीवन की अशांति को झेलने के लिए तैयार हो तो फ़िर जीवन को जानने की, किसी आत्मज्ञान वगैरह की कोई ज़रूरत नहीं है।
हटाओ सब बेकार की चीज़!
जिमकोर्बेट आए हो, बाघ देखो, कहाँ यहाँ सत्र में आकर बैठ गए?
प्र: लेकिन ये सब बड़ा आकर्षक भी लगता है, मैं जब अकेले में बैठकर सोचता हूँ ये बातें…