जीवन को गम्भीरता से कैसे ले सकते हो?

वक्ता: ये जो तुम हो, कितने साल लेकर आये हो? जितने भी लेकर आये हो उसमें से एक-तिहाई, एक-चौथाई तो गये। या नहीं गये? चार दिन थे तो एक गया, कुछ के साथ हो सकता है दो चले गये हों, कुछ के हो सकता है चार में से साढ़े तीन भी जा चुके हों।

(सभी श्रोता हँसते हैं)

कोई भरोसा नहीं, तो क्या गंभीरता से ले रहे हो? क्या बचाना चाहते हो? बचाते-बचाते एक दिन साफ़ हो जाओगे। बचेगा क्या? अरे जीवन भर इन्होंने बचाया बहुत। पर बचा क्या है? सम्माननीय से सम्माननीय आदमी भी सम्मान लेकर नहीं विदा होता। हाँ, विदा होने के दो ही तरीके होते हैं :

एक तो ये कि उलझनों में, तनाव में, भारी होकर, कि दुनिया भर की जिम्मेदारियां हमारे ही ऊपर हैं, ऐसे विदा हुए और रो रहे हैं, चिल्ला रहे हैं, ‘अभी तो बहुत काम बाकि थे, अभी तो मेरी कहानी अंतराल तक भी नहीं पहुंची थी और आप मझे उठाकर रवाना कर रहे हो। नहीं, नहीं, नहीं, मझे अभी और चाहिए, और चाहिए’। तो एक तो जाने का ये तरीका है। और दूसरा तरीका ये है, ‘जब आने में ही कुछ ख़ास नहीं था, तो जाने में ही क्या ख़ास है? कल ले चल रहे हैं, अभी ले चलो। मज़े में जिये हैं, मज़े में मर भी लेंगे। क्या रखा है?’ कबीर का दोहा है,

‘आया है सो जाएगा, राजा रंक फकीर,एक सिंहासन चढ़ी चले, दूजे बांध ज़ंजीर’

ज़्यादातर लोग जो मरते हैं, वो जंजीरें बांध-बांध कर ही मरते हैं। छटपटा रहे हैं कि किसी तरह से एक दिन और जीने को मिल जाए। अरे! तुम्हें अस्सी साल मिले, उसमें तुमने क्या उखाड़ लिया? ज़रा मौज में, ज़रा बादशाह की तरह जियो न, ‘सिंहासन चढ़ी चले’। ये इतने हल्के हैं कि जाने का क्या खौफ है। चेहरा झुका-झुका सा न लगे, यूँ ना लगे कि कंधे पर पता नहीं कितने बोझ है| बड़ी जिम्मेदारियां उठानी हैं, बड़े करतब करके दिखाने हैं, नाम रोशन करना है, ये और वो। अरबों अरब वर्ष का अस्तित्व है अंतरिक्ष का, उसमें तुम्हारे पचास साल, सत्तर साल क्या हैं? पलक झपकने बराबर नहीं हैं। तुम अपने आप को कितना महत्वपूर्ण माने बैठे हो? तुम्हारे होने में कुछ नहीं रखा है, पूरे अस्तित्व के सामने तुम्हारा पूरा जीवन काल, पलक झपकने से भी छोटा है। तुम क्या उसको गंभीरता से लेकर के झुके-झुके से रहते हो?

नहीं! मामला बड़ा गंभीर है

(सभी श्रोता हँसते हैं)

बरसाती कीड़े देखे हैं?

सभी श्रोता (एक स्वर में): जी, सर।

वक्ता: जो सुबह पैदा होते हैं और दोपहर तक मर जाते हैं किसी बल्ब के नीचे। उनका जीवन काल इतना ही होता है कि वो सुबह पैदा होंगे और दोपहर तक मर भी जाएंगे। वैसे ही हमारी हालत है। जैसे तुमको लगता है न कि अरे चार घंटे का तो इसका जीवन था, वैसे…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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