जीवन के हर मुद्दे को समस्या मत बना लेना
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। मुझे कई बार अजीब-सी स्थिति अनुभव होती है, उस समय मन में कोई हलचल या बेचैनी इत्यादि नहीं होती है, साँस भी तब बहुत स्थिर और लयबद्ध हो जाती है, दिल की धड़कनें स्पष्ट अनुभव होती हैं और उस समय बस पड़े रहना अच्छा लगता है। कुछ समय बिताने के बाद जब उठते हैं, चलते-फिरते हैं तो थकान तो नहीं लगती है, पर फिर भी भारीपन लगता है, सन्नाटा जैसा छाया रहता है।
यह कोई समस्या नहीं है, मेरे पास कोई उलझाव भी नहीं है। एक दुर्घटना ने मुझे सत्तर प्रतिशत विकलांगता दी है, इस कारण शारीरिक गतिविधियाँ सीमित हो गयी हैं। प्रतिदिन नौकरी के बाद परिवार के साथ ही जीवन हँसी-ख़ुशी और ध्यान आदि में गुज़रता है। आजकल यह ज़रूर हो रहा है कि ज़्यादा बोलने का मन नहीं होता, अकेले बैठे रहना ही अच्छा लगता है।
आचार्य जी, ये क्या है? क्या मैं उदासीनता की ओर बढ़ रहा हूँ?
आचार्य प्रशांत: आपने जितनी बातें लिखी हैं, उसमें से एक बात ही विशेष महत्व की है, और वो बात यह है कि आप जिस दौर से गुज़र रहे हैं, आपको जो बीच-बीच में, यदाकदा अनुभव होते हैं, वो कोई समस्या नहीं हैं।
जीव का संयोग कुछ ऐसा होता है कि वो समस्याओं में ही पैदा होता है, समस्याओं में ही जीता है और समस्याओं में ही उसकी जान जाती है। तो जब कभी-कभार अनुग्रहवश, अनुकंपावश ऐसा हो भी जाता है कि उसे शांत जीवन की झलक मिलती है, समस्याएँ सारी थम जाती हैं, तो वो इस अनुभव को — जोकि वास्तव में अनुभव है ही नहीं, वो वास्तव में अनुभव का अभाव है — तो वो इस अनुभव को भी नयी समस्या बना लेता…