जीवन के सुख-दुःख क्या भाग्य पर निर्भर करते हैं

जीवन के सुख-दुःख क्या भाग्य पर निर्भर करते हैं

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, पिंगला गीता में श्लोक क्रमांक १८ से २१ से प्रश्न है।

श्लोक कहते हैं:

“संसार में विषयों की तृष्णा से जो व्याकुलता होती है, उसी का नाम दुःख है, और उस दुःख का विनाश ही सुख है। उस सुख के बाद (पुनः कामनाजनित) दुःख होता है। इस प्रकार बारम्बार दुःख ही होता रहता है।” (१८)

“सुख के बाद दुःख और दुःख के बाद सुख आता है। मनुष्यों के सुख और दुःख चक्र की भाँति घूमते रहते हैं।” (१९)

“इस समय तुम सुख से दुःख में आ पड़े हो। अब फिर तुम्हें सुख की प्राप्ति होगी। यहाँ किसी भी प्राणी को न तो सदा सुख ही प्राप्त होता है और न सदा दुःख ही।” (२०)

“यह शरीर ही सुख का आधार है और यही दुःख का भी आधार है। देहाभिमानी पुरुष शरीर से जो-जो कर्म करता है, उसी के अनुसार वह सुख एवं दुःख रूप फल भोगता है।” (२१)

पिंगला गीता से श्लोक १८ से २१ तक ‘देहाभिमान’ और ‘विषयों में तृष्णा’ की व्याकुलता को ही दुःख का आधार बताया है। आमतौर पर मेरे जीवन के सभी चुनाव शरीर को केंद्र में रख कर ही होते हैं। कृपया देहाभिमान को नष्ट करने की प्रक्रिया बताएँ।

आचार्य प्रशांत: नहीं, नहीं, शरीर किसी का केंद्र नहीं होता। केंद्र तो सबका एक ही होता है, उसका नाम है ‘अहंकार’। ‘अहम’, ‘मैं’ केंद्र होता है। फिर आप उस ‘मैं’ के आगे जो पूँछ बाँधना चाहें, बाँध दें। ‘मैं शरीर हूँ’ कह दें, ‘मैं पदार्थ हूँ’, ‘मैं सुखी हूँ’, ‘मैं दुःखी हूँ’, ‘मैं आत्मा हूँ’ — जो कह दें, पर…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org