जीवन की परीक्षा ही बताती है कि कितने पानी में हो
प्रश्नकर्ता: आज एक, कुछ कथाएँ मिली थीं पढ़ने को। उनमें से सबसे पहली कथा जब पढ़ी थी तो उसका शायद संक्षेप ये था अंत में कि तुम्हें जो भी कर रहे हो उसके लिए तुम्हें किसी भी चीज़ का मोह या उसके प्रति आसक्ति या ऐसा कुछ नहीं होना चाहिए कार्य कर रहे हो तो। सफ़लता और विफ़लता, आपको उससे ना दुखी ना सुखी, इस तरह का आपसे सम्बन्ध नहीं होना चाहिए उस चीज़ से। पर आजतक शायद, मुझे लगता नहीं है, या फ़िर मुझे, या फ़िर मैंने उसको इतने तमीज़ से देखा नहीं होगा कि मैंने कोई कार्य बिना किसी इच्छा के या फिर उसके प्रति कुछ भी भाव जो मेरे अंदर जागृत होता है उसके बिना किया हो।
चाहे वो किसी की मदद ही करना क्यों ना हो, वो भी शायद मैं इसीलिए कर रहा था कि उससे मुझे सुकून मिलेगा, मुझे शांति मिलेगी या अच्छा फील (महसूस( होगा उससे। तो कोई भी कार्य, वो कहना चाहते हैं कि, बिना… मतलब तुम उत्साह के साथ करो पर तुम उससे कुछ भी चाह या आसक्ति ना रक्खो। तो वो मैं समझ ही नहीं पा रहा हूँ। ऐसा लगा रहा है कि अंधकार जैसा हो गया है कि कैसे ऐसा होगा कि मैं जो भी कर रहा हूँ, आजतक शायद कुछ-न-कुछ तरह का आनंद मुझे उसमें मिला है, तो ही कर पाया हूँ। चाहे वो पढ़ रहा हूँ या खेल रहा हूँ, अच्छा था इसलिए कर पाया नहीं तो शायद ना कर पाता। तो बस, समझ ही नहीं आ रहा कि ऐसे उत्साह कैसे आएगा इस क्रिया में।
आचार्य प्रशांत: कहानी क्या है सर्वप्रथम, तो ब्रह्मसूत्र जिन्होंने रचा है उन व्यासदेव के पुत्र और शिष्य थे शुकदेव। तो व्यास-महाराज ने खुद ही उन्हें शिक्षा दी थी। फिर जब वो युवा हो गए तो उनकी शिक्षा की…