जीवन — अवसर स्वयं को पाने का

नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय |प्रात भए फीकी लगे, ज्यौं दीपक की लोय ||-नागरीदास

वक्ता: ‘नीक’ माने अच्छा| जो अच्छा भी है, वो बुरा लगता है, यदि बिना अवसर के हो| ठीक वैसे जैसे की दीपक की लौ भी सुबह हो जाने पर व्यर्थ ही होती है| अवसर माने क्या? ये समझना होगा|

सवाल पूछा है प्रिया ने नागरीदास के दोहे से| पूछ रहीं हैं, ‘अवसर माने क्या?’ और दूसरी बात पूछ रहीं हैं, ‘सही अवसर जान नहीं पातीं हैं, कैसे पता हो?’

चूक हो जाती है हमसे| आमतौर पर हम अवसर का अर्थ समझते हैं सही समय या सही जगह| यही समझते हैं? सही मौका| उस मौके से अभिप्राय ही यही होता है कि सही समय पर और सही जगह पर| गड़बड़ हो गयी, यह आपने फिर से शब्दकोष वाला अर्थ उठा लिया|

अवसर एक ही है, आत्मा एकमात्र अवसर है| अब इस प्रकाश में फिर से सुनिए पहली पंक्ति को| ‘नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय’, आत्मा के अतिरिक्त और कोई अवसर नहीं होता| अवसर समय में या स्थान में नहीं है, अवसर अंतस है| यदि आत्मा से उद्भूत नहीं है, यदि आत्मा से संपृक्त नहीं है, तो बुरा तो बुरा लगेगा ही, अच्छा भी बुरा लगेगा क्योंकि बुराई है ही यही कि आत्मा से संपृक्त नहीं है| यही कह रहे हैं, ‘नीकौ हूँ लागत बुरौ, बिन औसर जो होय|’

संसारी मन इस पंक्ति का यही अर्थ करना चाहेगा कि देखो हर चीज़ का एक वक़्त होता है और बिना वक़्त के वो काम नहीं करना| नहीं, इसका यह अर्थ नहीं है, यह तो अर्थ का अनर्थ है| संसारी मन इस पंक्ति का यही अर्थ करना चाहेगा कि देखो हर काम को करने की एक उचित जगह होती है- वहाँ…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org