जिसे मृत्यु छू नहीं सकती

पृथ्व्याप्य तेजोऽनिलस्वे समुत्थिते पञ्चात्मके योगगुणे प्रवृत्ते।
न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरं॥

पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश — इन पाँचों महाभूतों का सम्यक उत्थान होने पर इनसे सम्बंधित पाँच योग विषयक गुणों की सिद्धि होने पर जिस साधक को योगाग्निमय शरीर प्राप्त हो जाता है, उसे न तो रोग होता है, न वृद्धावस्था प्राप्त होती है और न ही असामयिक मृत्यु प्राप्त होती है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक १२)

आचार्य प्रशांत: तो योग की दृष्टि से इसका अर्थ हुआ कि शरीर के सब तत्वों का समुचित शोधन हो जाने के बाद जो योगी होता है, वो रोग से, वृद्धावस्था से और असामयिक मृत्यु से बच जाता है। ठीक है? रोग से, जरा, माने वृद्धावस्था से, और असामयिक मृत्यु से, अकाल मृत्यु से, माने कि चालीस की उम्र में मर गए, साठ की उम्र में मर गए। योगी को स्वास्थ्य लाभ होता है, वो लम्बा जीता है। उसकी सौ वर्ष की आयु होती है। योग की दृष्टि से इसका ये अर्थ हुआ कि आप अपने शरीर पर काम करिए और उससे आपको शरीरगत लाभ अवश्य मिलेंगे।

वेदांत की दृष्टि से इसका क्या अर्थ है?

वेदांत की दृष्टि से अर्थ है कि ये जो पाँच भूत हैं, इनके पार जो निकल गया, ये जो पाँच तत्व हैं जिनसे शरीर बना है, इनके पार जो निकल गया, वो अब शरीर से सम्बंधित रहा ही नहीं, उसका अब शरीर से तादात्म्य रहा ही नहीं। जो अब शरीर है ही नहीं उसको तुम बूढ़ा कर कैसे लोगे? जो अब शरीर है ही नहीं उसे तुम बीमार कर कैसे लोगे? और जो अब शरीर है ही…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org