जिसे चोट लग सकती है, उसे सौ बार लगनी चाहिए
जब तक वो मौजूद है जो आहत हो सकता है, बहुत ज़रूरी है कि वो एक बार नहीं १०० बार आहत हो। चोट कौन खाता है? हमारे भीतर वो जो कमजोर, दुर्बल बैठा हुआ है।
आदमी जीवनभर जो हरकतें करता है, चाहे वो आर्थिक क्षेत्र की हो, पारिवारिक क्षेत्र की हो, यहाँ तक की चाहे वो आध्यात्मिक क्षेत्र की ही उसकी हरकतें क्यों ना हो, वो सब ले-देकर यही कोशिश होती है कि चोट खाने वाला बचा रहे, चोट न रहे।