जिसे चोट लग सकती है, उसे सौ बार लगनी चाहिए

जब तक वो मौजूद है जो आहत हो सकता है, बहुत ज़रूरी है कि वो एक बार नहीं १०० बार आहत हो। चोट कौन खाता है? हमारे भीतर वो जो कमजोर, दुर्बल बैठा हुआ है।

आदमी जीवनभर जो हरकतें करता है, चाहे वो आर्थिक क्षेत्र की हो, पारिवारिक क्षेत्र की हो, यहाँ तक की चाहे वो आध्यात्मिक क्षेत्र की ही उसकी हरकतें क्यों ना हो, वो सब ले-देकर यही कोशिश होती है कि चोट खाने वाला बचा रहे, चोट न रहे।

जब तक भीतर वो मौजूद है जो चोट खा सकता है, वो दुर्बल, वो झूठा, तुम्हें एक बार नहीं, १०० बार चोट का एहसास हो। ताकि तुम अपने आप को ये दिलासा ना दे पाओ कि तुम ठीक हो, तुम्हें उपचार की ज़रूरत नहीं। चोट नहीं लगेगी तो तुम्हें पता कैसे चलेगा कि तुम्हारे भीतर “मैं” का नाम पहन के एक दुर्बल शख्स बैठा हुआ है?

घबराना नहीं है, बचना नहीं है। हटने का नहीं, पीठ दिखाने का नहीं, छाती पे लेने का। बड़े साहब लोग बता गए हैं कि कमजोरी हमारा स्वभाव नहीं। तो छाती अगर हमारी कमजोर है तो नकली छाती होगी।

ये सब बातें तुम आम संसारियों के लिए छोड़ दो कि चोट ना लगे। जवान आदमी हो, छाती चौड़ी करके खड़े हो जाओ समय के सामने, संसार के सामने। दर्द आप अपना उपचार हो जाता है। दर्द से घबराना नहीं।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org