जिसे चाहते हैं हम चुपचाप

आचार्य प्रशांत: दुनिया में जो कुछ भी है, छोटा-बड़ा, उससे तुम जो भी संबंध बना रहे हो वो वास्तव में सच की ख़ातिर ही बना रहे हो। ये जो पूरा खेले ही चल रहा है, ये खेल एक परम सत्ता के आधार पर और एक परम सत्ता की लालसा में है। ये उसी से आ रहा है खेल और उसी की ओर जाने के लिए है। चाहे तुम रात में छत पर बैठकर के चाँद को देख रहे हो, चाहे तुम बाग के किसी छोटे फूल के साथ खेल रहे हो, चाहे तुम जीवन में अपने माता-पिता से संबंध बना रहे हो, चाहे अपनी पत्नी से बना रहे हो, अपने पति से बना रहे हो, अपनी बेटी से, अपने बेटे से संबंध रख रहे हो। तुम दुनिया में जो कुछ भी कर रहे हो — उसी से कर रहे हो उसी की ख़ातिर कर रहे हो।

बात समझ में आ रही है?

अब बताओ उसको भूलोगे कैसे? भूलते तो तुम उसे कभी भी नहीं हो, पर फिर भी भूले रहते हो। उसे तुम अगर भूल गए होते तो फिर तुम कुछ करते ही नहीं। तुम्हारा एक-एक कर्म उसी की ख़ातिर है माने लगातार वो तुमको याद है लेकिन फिर भी तुम बार-बार ये कहते हो कि “अरे! मैं तो नौकरी की ख़ातिर दफ्तर जाता हूँ।” नहीं, नौकरी की ख़ातिर नहीं जाते; अगर गौर से देखोगे कि किस वजह से तुम पैसा चाहते हो, ज़िंदा रहना चाहते हो, तो तुम्हें समझ में आएगा नौकरी का असली मकसद।

तुम कहोगे, “नहीं, वो तो सिर्फ मैं थक गया था इसीलिए पहाड़ों की ओर आ गया।” नहीं, तुम सिर्फ थकान उतारने के लिए पहाड़ों की ओर नहीं आए हो। पहाड़ों की ओर आने का तुम्हारा एक छुपा हुआ और बहुत गहरा मकसद है। बस तुम उससे परिचित नहीं हो पा रहे हो।

देवी-देवताओं से तुम्हारा संबंध कभी डर का होता है, कभी आशा का होता है, कभी सम्मान का होता है। इस पूरे खेल में तुम माँग क्या रहे हो देवी-देवताओं से, देखो तो सही? शांति माँग रहे हो। पानी पीकर के क्या कर रहे हो तुम? अपने शरीर…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org