जिम्मेदारी माने क्या?
आचार्य प्रशांत: संदीप (श्रोता की ओर इशारा करते हुए) पूछ रहा है अपने ही लिए जीना चाहिए या दूसरों के लिए भी? हमारी कुछ ज़िम्मेदारियाँ हैं जिन्हें हमें निभाना पड़ेगा जैसे बेटा हूँ, भाई हूँ। चलो, संदीप खुद ही बोलो।
प्रश्नकर्ता: सर, अब तक तो हम सोच रहे थे कि जिम्मेदारियों को भी निभाना चाहिए जैसे किसी ने हमको जन्म भी दिया है तो उसको तो पूरा करना पड़ेगा।
आचार्य: बिलकुल ठीक है। तो उसमे अड़चन कहाँ है?
प्र: सर, कभी-कभी लगता है कि जो लोग उम्मीद करते हैं, वो सब एक स्वार्थ रखते हैं मुझसे।
आचार्य: वो बात भी ठीक है उसमे अड़चन कहाँ है? देखो, तुम जिससे भी सम्बंधित हो जिस भी तरीके से वहाँ ज़िम्मेदारी तो है ही। तुम अगर अभी मेरे सामने बैठे हो तो मेरी तुम्हारे प्रति कुछ ज़िम्मेदारी है। तुमने एक सवाल लिखा है तो उसे लेना ज़िम्मेदारी है और तुम मेरे सामने बैठे हो तो तुम भी मुझसे सम्बंधित हो और तुम्हारी भी कुछ ज़िम्मेदारी है– शान्ति से बैठना, स्वयं ध्यान से सुनना, औरों को ध्यान से सुनने देना तुम्हारी ज़िम्मेदारी है। है न? तो हम जहाँ भी हैं जैसे भी हैं ज़िम्मेदारी तो प्रतिक्षण होती है। अड़चन कहाँ पर है?
आप किसी घर में पैदा हुए, पले-बढ़े, उन्होंने आपको रक्षा दी, ज्ञान दिया और आज भी वो आपके साथ हैं आपका भरण-पोषण भी उन्हीं से है तो इसमें कोई शक नहीं कि ज़िम्मेदारी है आपकी। इसमें दिक्कत क्या है? बड़ी यह एहसानफ़रामोशी की बात होगी न कि आप कह दें कि मेरी कोई ज़िम्मेदारी ही नहीं, कि नहीं होगी? 20 साल तक जिसके मत्थे तुमने देह बनाई, सांसें ली रुपैया- पैसा…