जिन्हें ताकत चाहिए, वे ज़िम्मेदारी स्वीकारें

जो भी तुम्हें शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक रूप से कमज़ोर बनाए, उसे ज़हर की तरह त्याग दो।

~ स्वामी विवेकानंद

जो बल तुम्हें ध्यान की ओर न ले जाए, वो बल ही झूठा है। यदि कोई सत्य की बात करता हो और उसमें बल न हो, तो समझ जाओ कि वो झूठ में जी रहा है।

प्रेम कोई मुलायम तकिया नहीं है। प्रेम तो जीवट है, संघर्ष है। वस्तुतः अध्यात्म बल की ही साधना है। बिना बल के तुम बंधन कैसे तोड़ पाओगे?

मुंडक उपनिषद् में कहा गया है: नायमात्मा बलहीनेन लभ्यो।
अर्थ: आत्मा बलहीन को प्राप्त नहीं होती है।

वास्तविकता में ज़िम्मेदारी और बल एक साथ चलते हैं।

यदि समसामयिक अध्यात्म अपनी ज़िम्मेदारियों से ही भागने की एक साज़िश हो तो आवश्यक हो जाता है कि बल की बात ही न की जाए।

अहंकार प्रशय पाता है दुर्बलता में। इसलिए वास्तविक अध्यात्म तुम्हें असली ताकत की ओर प्रेरित करता है।

वास्तव में मन और शरीर की यथार्थता ही कमज़ोरी है। स्थितियाँ तुम्हें यह एहसास कराती ही रहेंगीं कि तुम कमजोर हो। तब तुम यह मत कहना कि ऐसा नहीं हुआ। बलवान का यह लक्षण है कि वो अपनी हार को बड़े विनय के साथ स्वीकार करता है।

दूसरों की नज़र में प्रतिष्ठित होने की चाह सबसे बड़ी कमज़ोरी है।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org