जिन्हें अकेलापन जकड़ता हो
‘लोनलीनेस’ अपनेआप को बहुत होशियार समझती है। यह जो अकेलापन है, जो आंतरिक निर्जनता, तन्हाई है, यह सिर्फ यही नहीं कहती कि “मैं परेशान हूँ” — ये यह भी कहती है कि “मैं परेशानी का समाधान जानती हूँ”। बहुत होशियार समझती है अपनेआप को। यह कहती है अकेलापन दूर करने के लिए यहाँ जाओ, वहाँ जाओ। जब बहुत शोर ही मचाने लगे यह तो इसकी सलाह मान लो। यह जहाँ को भी भेज रही है, वहाँ चले जाओ। वहाँ जाओ, मुँह की खाओ और परेशान हो, नाक कटाओ, मुँह काला करो, वापस आ जाओ। और कोई तरीका नहीं है। या तो इतनी उसमें विनम्रता होती या समझ होती कि वो उपदेश से मान जाती, पर उपदेश तो तुम खुद ही देख रहे हो, और फिर भी वो अकेलापन, सूनापन मानता नहीं। वह कहता है — “चाहिए! चाहिए!” तो ऐसे में मैं कहा कहता हूँ कि उसकी बात मान ही लो। वह तुमसे कह रहा है जाओ कॉमेडी देखो, गाने देखो, सेक्स देखो, जो भी देखने को कह रहा है वह तुम कर ही डालो। फिर भीतर से छूटेगी भभक्ति हुई ग्लानि, खुद ही समझ जाओगे कि समय बर्बाद किया। और फिर अगली बार जब यह अकेलापन आवाज़ दे तो इसकी आवाज़ क्षीण होगी। आवाज़ तब भी देगा, पर अब उसकी आवाज़ कमजोर होगी। तुम इतनी आसानी से अब उसकी आवाज़ पर विश्वास नहीं करोगे और फिर उसके बाद और क्षीण होगी और क्षीण होगी। फिर शनैः शनैः मिट जाएगी।
पारंपरिक रूप से हमने आध्यात्मिक संयम को कुछ और समझा है। पारंपरिक रूप से धार्मिक अनुशासन यही रहा है कि अपने द्वार ही बंद कर लो। शपथ उठा लो कि — भोग की ओर नहीं जाना, विलास की ओर नहीं जाना, मनोरंजन की ओर नहीं जाना, स्त्री की ओर नहीं जाना, पुरुष की ओर नहीं जाना, धन की ओर नहीं जाना, आमोद-प्रमोद की ओर नहीं जाना, इंद्रियगत सुख…