जिनका दिल दुखता हो !

जिनका दिल दुखता हो

तुम जंगल में शेर को हिरण का शिकार करके खाते देखते हो तो तुम्हारा दिल टूट जाता है क्या? बुरा लगता भी होगा तो थोड़ा-बहुत, क्योंकि जानते हो कि ये तो जंगल है यहाँ तो ये होना-ही-होना है। तो जंगल में तुम्हें बुरा नहीं लगेगा।

लेकिन एक शहर की गलियों में तुम पाओ कि एक इंसान ने दूसरे के सीने में खंजर उतार दिया और उसके बाद उसका रुपया-पैसा लूटकर के भाग गया तो तुम्हें बुरा लगता है।

अब हत्या तो तुमने जंगल में भी देखी, और हत्या तुमने शहर में भी देखी। जंगल में बुरा क्यों नहीं लगा? शहर में बुरा क्यों लगा?

तुम कहोगे, “अरे, हम इंसान हैं न! हम जानवरों से बेहतर हैं, इसलिए मुझे बुरा लगता है।”

बुरा लगना बंद हो जाएगा अगर तुम समझ जाओ कि हम जानवरों से बेहतर नहीं हैं। हमने ऊपर-ऊपर सिर्फ़ सभ्यता और संस्कृति का नक़ाब ओढ़ रखा है। भीतर हमारे भी जानवर ही है, जंगल ही बैठा हुआ है।

जितना बुरा लगना है अभी लग ले। दिल अगर रोज़ टूटता है तो उसे एक ही बार में पूरी तरह टूट जाने दो। फिर बार-बार नहीं टूटेगा।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org