जानवरों से दोस्ती करके तो देखो

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, सादर प्रणाम। आप जानवरों की कथाएँ पढ़वा रहे हैं, और मेरी समस्या ये है कि मुझे तो छोटे-छोटे जीवों से भी डर लगता है। कैसे इनसे डरना बंद करूँ? क्या मुझमें शरीर बोध ज़्यादा है?

आचार्य प्रशांत: शुरुआत कर लो। जिससे प्यार हो जाता है, जिससे दिल का रिश्ता बन जाता है, बाद में उसकी गलियाँ भी अच्छी लगने लगती हैं, उसका मोहल्ला ही अच्छा लगने लगता है।

शुरुआत कर लो। किसी एक से शुरुआत कर लो, फिर उसका पूरा कुटुंब प्यारा लगने लगेगा। सबसे बराबर का डर तो लगता नहीं होगा? कुछ तो होगा जो कम सताता होगा। जो कम सताता हो, उससे दिली दोस्ती कर लो।

तुम्हारे भीतर कुछ बहुत-बहुत अधूरा रह जाएगा अगर कोई जानवर तुम्हारे कुनबे में शामिल नहीं है। अगर कोई जानवर तुम्हारे परिवार का ही सदस्य नहीं है, तो समझ लो कि अभी तुम इंसान नहीं हुए। इंसान होने के लिए बहुत ज़रूरी है कि जानवर से दोस्ती करो। कहीं से शुरुआत करो, कोई बिल्ली, कोई कुत्ता, कोई भी।

एक बार किसी पशु को गले लगा लिया, एक बार उसके साथ समय बिताया, उसकी आँखें देखी, फिर बड़ा मुश्किल हो जाएगा तुम्हारे लिए डरना। और आदमी के मन की कितनी सीमाएँ हैं, ये तुम्हें देवताओं के और गुरुओं के पास जाकर बाद में पता चलेगा, पहला आभास तो जानवर की निकटता में मिल जाता है। क्या समझेगा आदमी का मन सत्य को, आदमी का मन तो पशु को ही नहीं समझ पाता!

किसी जानवर से दोस्ती करो, फिर देखना कितना कुछ है जो वो तुमसे कहना चाहता है, और तुम्हें एहसास-सा होता है कि इसने कुछ कहा, और तुम जान नहीं पाते। जानवर के पास जाओ कि तुम्हें पता चलेगा विचार कितना क्षीण है, मन कितना दुर्बल है — ये बेचारे कुछ नहीं जानते!

ठीक अभी, जब तुमसे बात कर रहा हूँ, मेरे पाँव पर गोलू (खरगोश) बैठा हुआ है। बीच-बीच में कुछ हरकत करता रहता है; कभी पजामा खींच लेता है, कभी उसको लगता है कि “दूसरों पर ही ध्यान दे रहे हैं, हम बेवफ़ा हो गए,” तो थोड़ा काट भी लेता है। यहाँ ऊपर-ऊपर एक क़िस्सा चल रहा है, नीचे-नीचे दूसरा। और वो क़िस्सा दुनिया को कभी पता नहीं चलेगा, वो मेरी निजी प्रेम कहानी है। क्या दिख रहा है गोलू आप लोगों को? नहीं दिख रहा है शायद उधर से!

तो ये जनाब यहाँ बैठे हुए हैं, और इन्हें कहा नहीं गया यहाँ बैठने को। यहाँ जहाँ बैठे हैं, वहाँ उनके पास न दाना है, न ख़ुराक, न पानी है। और खरगोश खाते ख़ूब है, जल्दी-जल्दी कुतरने की आदत होती है। घंटे-दो घंटे भी ये खाए बिना आमतौर पर गुज़ारते नहीं, थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-थोड़ा हमेशा कुतरते रहते हैं। पर ये सज्जन — सत्र दो घंटे चले, चार घंटे चले — ये सभी की तरह सुनते हैं। इन्हें भी बैठने के लिए आसन चाहिए, तो अब ये नीचे इनका आसन लगा है, गद्दे…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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