जानवरों पर अत्याचार बुरा लगता हो तो

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, बचपन से ही मेरे साथ ये समस्या रही है कि मेरा मन बहुत विचलित हो जाता है, जैसे ही उसे किसी के दुःख का अनुभव होता है — किसी की मृत्यु, जानवरों का शोषण इत्यादि। ये बातें मेरे मन में पैठ जाती हैं और मैं इसने बाहर नहीं आ पाती। हालंकी मैं अपनेआप को बहुत समझाती हूँ कि संसार कुछ है नहीं, जगत मिथ्या है।

आचार्य प्रशांत: नहीं, है क्यों नहीं? अगर दुःख अनुभव हो रहा है — तो ‘अनुभव’ हो रहा है।

प्रश्नकर्ता: बहुत ज़्यादा, उसका बहुत गहरा असर पड़ता है।

आचार्य जी: असर पड़ता है या नहीं — उसको देखेंगे। दुःख का अनुभव तो है, असर कितना है, अभी ज़रा उसका अन्वेषण करेंगे। ‘दुःख’ बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी होता है। आपको आपकी ज़िम्मेदारी का, आपकी देयता का एहसास कराने के लिए ही दुःख आता है। दुःख इसलिए नहीं आता कि दुःख का वैसे ही अनुभव कर लो जैसे तीन घंटे की पिक्चर में तुम सिनेमापट का अनुभव कर लेते हो, और फिर बाहर आ जाते हो। दुःख आता है ताकि हम अपनी ज़िम्मेदारी समझ पाएं — कुछ बदलने की।

दुःख का मतलब क्या है? दुःख का मतलब है कि तुम अभी सहज नहीं हो। कुछ है जो कचोट रहा है। तुम आनन्दित नहीं हो। तो दुःख अपने साथ ये दायित्व लेकर आता है कि कुछ बदलना चाहिए। स्थितियां जैसी हैं, वैसी ही नहीं रहनी चाहिए। तो आपने कहा कि पशुओं के साथ शोषण हो रहा है, हिंसा हो रही है, और आपको बुरा लगता है। तो आपने क्या किया?

प्रश्नकर्ता: मैं अपनी तरफ़ से तो पूरी शाकाहारी ही हूँ, औरों को भी बोलती हूँ कि हिंसा न की जाए।

आचार्य जी: देखिए, समझिएगा। जो अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह पूरी तरह कर रहा होता है, वास्तव में उसके पास दुःखी होने का समय ही शेष नहीं बचता। जानवरों के प्रति हिंसा अगर आपको इतनी ही बुरी लगती है, चूंकि लगनी भी चाहिए, तो डुबो दीजिए न अपना पूरा दिन पशुओं की सेवा में, जन-मानस की जागृति में, जन-जागरण के अभियान में।

दुःख आपको कचोट ही इसीलिए रहा है क्योंकि आप वो नहीं कर रहीं जो आपको करना चाहिए। पूरी ऊर्जा अगर सार्थक कर्म में लगने लग जाए तो दुःखी होने के लिए भी ऊर्जा बचेगी कहाँ? दुःख भी बहुत ऊर्जा मांगता है न, और समय मांगता है। देखा है दुःख में कितना समय नष्ट होता है? और वो समय लगना कहाँ चाहिए था? पशुओं की सेवा में लगना चाहिए था। और इस वक़्त तो पृथ्वी को बहुत ज़रुरत है ऐसे लोगों की जो पशुओं, वनस्पतियों की तमाम प्रजातियों, पर्यावरण — इनकी रक्षा, इनके पोषण के लिए सक्रिय अभियान चलाएं।

दुःख सक्रिय सहभागिता का विकल्प नहीं हो सकता। कोई कहे कि “मैं करता तो कुछ नहीं हूँ, पर मुझे दुःख बहुत है”, तो क्षमा कीजिएगा पर ये पाखण्ड हो गया। “दुनिया में…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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