जानवरों के प्रति संवेदना
प्रश्न: आचार्य जी, अक्सर सड़कों पर जानवरों को मृत देखता हूँ, देखकर वेदना भी उठती है। और यह भी देखता हूँ कि मैं किस प्रकार उस वेदना का गला घोट देता हूँ और आगे बढ़ जाता हूँ। कहाँ चूक हो रही है?
आचार्य प्रशांत: गौरव (प्रश्नकर्ता), चूक यह हो रही है कि तुम्हारी वेदना बहुत स्थूल है। पहली बात तो — वेदना तब उठ रही है जब जानवर मर ही जाए, उससे पहले नहीं उठ रही। और दूसरी बात — सिर्फ़ उस जानवर के लिए उठ रही है जो तुम्हारी आँखों के सामने मरा पड़ा है। अभी दो-चार दिन पहले मैंने सबको एक आंकड़ा बताया था। मैंने कहा था कि प्रति-मिनट तीन लाख जानवर मारे जा रहे हैं। तब वेदना नहीं उठ रही थी तुमको? यह बड़ी स्थूल वेदना है। किसी को कष्ट मिल रहा है तो वेदना नहीं उठ रही, पहली बात तो उसे मरना चाहिए। और दूसरी बात, “उसे आँखों के सामने मरना चाहिए, तब हम में वेदना उठेगी!” जितनी देर में मैंने तुमसे यह बात करी, इतनी देर में डेढ़ लाख जानवर कट गए। वेदना उठी? हाँ?
तो असली वेदना तब होगी जब लगातार याद रखो कि हमारी यह पूरी सभ्यता, पूरी प्रगति, यह सब अरबों जानवरों की लाश पर खड़े हुए हैं। और इसीलिए इंसान कभी भी चैन से जी नहीं पाएगा।
तुम्हारा ऐसा कुछ नहीं है जो लाखों-करोड़ों जानवरों को मारकर नहीं आता हो, कुछ भी नहीं है। प्रतिपल जब वेदना तुम्हारे मन को मथ डाले, तब तुम्हारी वेदना सच्ची हुई और तब तुम्हारी वेदना कर्म में परिणीत होगी। लगातार याद रखना — इंसान की सारी प्रगति इंसान का सारा ओहदा प्रकृति के विनाश पर आधारित रहा है; और छोटा-मोटा विनाश नहीं!