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जानवरों का शोषण करने की सज़ा

प्रश्नकर्ता: पश्चिम में जानवरों का मांस और जानवरों से उत्पन्न उत्पाद को खाने में प्रचूरता से उपयोग में लाया जाता है। पश्चिम के लोग शारीरिक दृष्टि से भी संमृद्ध हैं और आर्थिक दृष्टि से भी।

तो क्या प्रकृति को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता? और अगर पड़ता है तो किस रूप में प्रकट होता है?

आचार्य प्रशांत: दो बातें होती हैं- एक होता है ये जो शरीर और मन की बात है। एक होती है इनकी खुशी कि आप इनकी बढ़ोत्तरी में अपनी बढ़ोत्तरी देखो।

और दूसरी चीज़ होती है आत्मा या हृदय।

आप बिलकुल ऐसा कर सकते हो कि आप शरीर और मन से जुड़े रहो और ज़िन्दगी ऐसी बिताओ जिसमें इन दोनों की इच्छायें पूरी होती हो। आप बिलकुल ऐसा कर सकते हैं।

आप खाना ऐसा खा सकते हैं जिससे आपका शरीर और बड़ा हो जाए, तगड़ा हो जाए और शरीर बढ़ेगा तो आप कह सकते हो कि देखो मेरी भी तरक्की हो गयी।

आप जीवन ऐसा जी सकते हो जिसमें मन की जितनी भी इच्छाएँ हों आप उनको पूरी करो और पूरी हो जाएं तो आप कहो- मेरी इच्छायें भी पूरी हो गयी। ये जीने का एक तरीका है।

जीने का दूसरा तरीका ये है कि जो स्वयं संतुष्ट आत्मा है तुम उससे जुड़ के जियो। वहाँ कोई इच्छा वगैरह पूरी नहीं करनी है और अगर उससे जुड़ोगे तो शरीर और मन की जो अपनी निजी इच्छायें हैं वो तो पूरी नहीं होंगी। क्योंकि अब तुम किसी की इच्छा पूरी करने के लिए जी नहीं रहे। अब तो तुम आत्मा में बैठे हो वहाँ कोई इच्छा होती नहीं। तो गाड़ी तुमने उसके हवाले छोड़ दी है। शरीर चल रहा है, मन…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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