जानते-बूझते क्यों फिसल जाता हूँ

आचार्य प्रशांत: अजीत का सवाल है कि ये सारी बातें बहुत अच्छी हैं। अभी सुन रहे हैं तो समझ में भी आती हैं लेकिन बाहर निकलते ही परिस्थितियाँ कुछ ऐसे बदलती हैं कि हम इन पर चल नहीं पाते। बाहर लोग हैं, ताकतें हैं जो जानते-समझते भी हमको वो करने नहीं देते जो उचित है। वो पढ़े लिखे लोग हैं फिर भी हमको गुमराह करते रहते हैं। दो हिस्से हैं अजीत। एक हिस्सा तो यह है कि हम अपने आप को देखें और दूसरा कि दूसरों को देखें। जब अपने आप को देखें तो ये सवाल उठना ही चाहिए कि अभी यहाँ बैठे हुए हैं, ध्यान से सुन भी रहे हैं, कुछ लिख भी रहे हैं लेकिन उसके बाद भी ये होगा कि बाहर निकलते ही ये सब खो जाना है। थोड़ी ही देर में बाहर जाओगे और जो कुछ है, वो ख़त्म ही हो जाना है, खो ही जाना है। ऐसा होता क्यों है? ऐसा होता इसलिए है क्योंकि अभी जो तुमने सुना, वो एक ऐसे माहौल में सुना है जो मैंने बनाया है। ये माहौल तुम्हारी समझ के लिए अनुकूल है। सदा तो तुम मेरे बनाए माहौल में नहीं रह सकते। बाहर निकलते ही एक दूसरा माहौल तुम्हारे इंतज़ार में खड़ा हुआ है। वहाँ पर जिम्मेदारी तुम्हारे ऊपर होगी कि या तो अपने आप को उस बदले माहौल में भी सुरक्षित रखो या फिर अगर माहौल दूषित है तो उससे दूर ही हो जाओ। यहाँ तो बैठे हुए हो ध्यान से, यहाँ तो चुप हो, मौन हो, एकाग्र हो, और बाहर निकलते ही तुम्हारी स्थिति बिल्कुल बदल जानी है।

बाहर निकलते ही दस लोगों के प्रभाव में होंगे। मन जो अभी शान्त है, वो चलना शुरू हो जाएगा। वो मन जो अभी सिर्फ सुन रहा है उसमें दस तरीके के ख्याल आने शुरू हो जाऐंगे। वो आँखें जो अभी स्थिर हैं वो, दस दिशाओं में देखना शुरू कर देंगी। हज़ार…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org