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ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम न हो

ज़िन्दगी से चीज़ें कम हो जाएं तो कोई फर्क नहीं पड़ता पर ज़िन्दगी से ज़िन्दगी कम नहीं होनी चाहिए।

बात को ध्यान से समझो:

चीज़ें ज़िन्दगी नहीं होती, चीज़ों को जाने दो, चीज़ों से ज़िन्दगी नहीं बनती। चीजें तो बाहर से आई हैं और उन्हें बाहर चले जाना है। चीज़ों का स्वभाव है आना और जाना।

ज़िन्दगी आने–जाने वाली चीज़ नहीं है।

वो पूरी है और वो ज़िन्दगी जो चीज़ों के पीछे भागते हुए बीतती है, वो अधूरी रह जाती है। बड़ी गरीब रह जाती है, गरीबी यह नहीं कि पैसा कम हो गया, गरीबी यह है कि पैसा और चाहिए था। गरीब वो नहीं जिसके पास इतना ही है, गरीब वो है जिसे अभी और चाहिए फिर भले उसके पास कितना भी हो, अभी वो और मांग रहा है, तो ज़िन्दगी बुरी है क्योंकि वो चीज़ों के पीछे भाग रहा है।

चीज़ें सदा बाहरी हैं, व्यक्ति सदा बाहरी हैं, स्थितियां सदा बाहरी हैं। तुम्हारी सिर्फ तुम्हारी समझ है, तुम्हारी जानने की क्षमता, तुम्हारी होश की काबिलियत, सिर्फ वो है तुम्हारी अपनी, सिर्फ वो तुम हो। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है तुम्हारा।

जो कुछ बाहरी है, उससे डरने की भी ज़रूरत नहीं है, उससे भागने की भी ज़रूरत नहीं है। बस उससे एक गहरा तादात्म्य ना बन जाये इसका होश रखना है, ‘मैं बाहरी नहीं हूँ‘, यह बोध लगातार बना रहे, ‘मैं चीज़ नहीं हूँ‘।

लेकिन जीवन हमारा ऐसा ही हो जाता है, तुम अगर एक आम आदमी को देखो तो उसने अपने जीवन को चीज़ों से संयुक्त कर दिया है। उसके घर से अगर सोफे कम हो जाएं तो उसे लगता है कि ज़िन्दगी से कुछ चीज़ कम हो गया। अगर तुम एक आम-आदमी को देखो, तो उसके घर में अगर एक नया बड़ा टी.वी. आ जाए तो उसे लगता है कि उसकी ज़िन्दगी बढ़ गई और उसकी गाड़ी चोरी हो जाए तो उसे लगता है कि ज़िन्दगी चोरी हो गयी।

यह गड़बड़ है, तुमने वस्तुओं के साथ जीवन जोड़ दिया है। तुमने आपनी पहचान स्थापित कर ली वस्तुओं से, व्यक्तियों से, परिस्थितियों से। अब दिक्कत हो कर रहेगी।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant
आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

Written by आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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