जवान हो, वाकई?

ज़्यादातर लोगों को यह एहसास भी नहीं होता कि ज़िन्दगी कितनी खाली है। अधूरेपन का, खालीपन का एहसास होना बहुत बड़ा सौभाग्य है क्योंकि इससे शायद आगे का रास्ता निकल सकता है, कुछ बात बन सकती है।

जिस बीमार को यह पता ही ना हो कि मैं बीमार हूँ, उसका मरना पक्का है, इलाज की कोई सम्भावना नहीं है। हम जैसे जीते हैं उन तरीकों में यह होना ही है कि सच ,हमें छू जाए और एहसास करा जाए कि मामला गड़बड़ है। यह ऐसी सी बात है कि जैसे एक अँधा आदमी हो जिसने अपने आपको यह यकीन दिला रखा हो कि मैं अँधा नहीं हूँ। मुझे सब दिखाई पड़ता है और उसने पूछ-पूछ के रट भी लिया है सब कुछ। उसने रट लिया है कि कौन सी सड़क कहाँ जाती है और कितने कदम चल लें तो कहाँ पहूँच जाएंगे। उसने रट लिया है कि आसमान का रंग नीला होता है और नीला जैसा कोई शब्द होता है। उसने सारे रास्ते, सारे मकान, सारी दुकान — सब रट लिए हैं। उससे तुम पूछो कि यहाँ से यह चौराहा कितनी दूर है, वह बता देगा जैसे उसे सब दिख रहा हो। लेकिन चलते-चलते अचानक रास्ते में एक पत्थर आ जाता है और इस पत्थर का उसे पहले से नहीं पता। उसने रट नहीं रखा कि रास्ते में एक छोटा सा पत्थर भी पड़ा है। पत्थर से चोट लगती है और वह लड़खड़ा के गिरता है। यह चोट उसे बताने के लिए काफी है कि तुम अंधे हो, तुम्हें दिखाई नहीं पड़ता।

जितनी रटने वाली चीज़ें थी वह तो सब रट ली पर सच, रटा नहीं जा सकता। तुम्हें रास्ते का पत्थर ही नहीं दिखाई पड़ता। तुम अंधे हो। यह वास्तविकता की ठोकर है जो उसे लगती है।

पर अँधा खड़ा होता है, कपड़े झाड़ता है और आगे बढ़ जाता है। वो अपने आपको बताना ही नहीं चाहता कि मैं अँधा हूँ।

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org