जब सत्य और माया दोनों आकर्षक लगें
प्रश्नकर्ता: सत्य और माया, दोनों अच्छे लगते हैं। बहुत चंचलता होती है। कोई उपाय बताएँ।
आचार्य प्रशांत: एक माया बुरी लगती है, एक माया अच्छी लगती है — ये मत कहो कि सत्य भी अच्छा लगता है और माया भी अच्छी लगती है। सत्य के सामने बुरा लगना ठहर सकता है, बंद हो सकता है, वो एक बात है, और सत्य अच्छा लगता है, ये बिल्कुल दूसरी बात है।
सत्य वो है जिसके सामने, जिसे अच्छा लगता है और जिसे बुरा लगता है, उसे कुछ भी ‘लगना’ इत्यादि बंद ही हो जाए।
जब तक वो बैठा हुआ है निर्णेता बनकर जो अनुभव करता है, और किसी अनुभव को बोलता है, “ये अच्छा है,” किसी अनुभव को बोलता है, “ये बुरा है,” तब तक कौन-सा सत्य, और किसके लिए?
तो जब कोई कहे कि सत्य और माया के बीच में फँसा हुआ है, तो संभावना यही है कि वो सत्य और माया के बीच में नहीं, ‘मीठी माया’ और ‘कड़वी माया’ के बीच में फँसा हुआ है। माया इसी तरह तो फँसाए रह जाती है न — कड़वी वाली से भागते हो, तो मीठी वाली पर जाकर बैठ जाते हो। नहीं तो कब के मुक्त हो गए होते!
फल तो माया का बंधन ही होता है न? और बंधन स्वभाव नहीं है। बंधन अनुभव करके कब का छोड़ दिया होता बंधनों को, पर कड़वे बंधनों से जब अनासक्ति उठती है तो मीठे बंधनों की ओर बढ़ लेते हो। मीठे बंधनों का नाम सत्य नहीं होता।
सत्य अच्छा या बुरा लगने की चीज़ नहीं है। सत्य वो है जिसकी रोशनी में तुम देख पाते हो कि कौन है जो अच्छे-बुरे का निर्धारण करता फिरता है।