जब मन पर भावनाएं और वृत्तियाँ छाने लगे
प्रश्नकर्ता: भावनाओं से अनछुए नहीं रह पाती हूँ। विवेक कहता है कि भावनाओं को देखो, उनसे प्रभावित नहीं हो लेकिन फ़िर भी मैं प्रभावित हो जाती हूँ। कभी चिल्ला देती हूँ, कभी रो देती हूँ, तो इससे कैसे निजात पाएं कि मन एकदम स्थिर हो जाए।
आचार्य प्रशांत: दो तरीके हैं या तो यह देख लो कि यह जो रोना हो रहा है, चिल्लाना हो रहा है यह सब देह के कारण हैं। प्रकृति की बात है, मनुष्य की देह धारण करी है, स्त्री की देह धारण करी है, तो यह चीखना-चिल्लाना चलता रहता है इंसानी करतूतें हैं। काफी कुछ तो इसमें स्त्रैण है।
दूसरा यह तरीका है कि यह सारा रोना चिल्लाना किसी महत उद्देश्य को समर्पित कर दो। कह दो ऊर्जा तो मुझ में है ही, बहुत इच्छाएं हैं, कामनाएं हैं, तो जब कामना करनी ही है तो किसी ऊंची चीज की करूँगी। ज़ोर लगाना ही है, चीख-पुकार करनी ही है तो जो ऊँचे से ऊँचा हो सकता है उसके लिए करूँगी।
पहली विधि को ‘कर्म सन्यास’ कहते हैं, दूसरी विधि को ‘कर्मयोग’ कहते हैं। पहली विधि कह रही है कि यह जो कुछ भी कर्म हो रहे हैं, जान लो कि तुम उसके कर्ता हो ही नहीं। उनके तुम थोड़े ही कर्ता हो उनकी कर्ता तो प्रकृति है। उनके करता तो वह सब प्रभाव हैं, जो तुम्हारे ऊपर पड़े हैं। कह दो कि यह मैं थोड़े ही कर रही हूँ यह तो शरीर करवा रहा है, शरीर के हार्मोन करवा रहे हैं। भीतर के मेरे रसायन करा रहे हैं, जो मेरा अतीत रहा है वह करवा रहा है। जो मुझ पर सामाजिक प्रभाव पड़े हैं, धार्मिक प्रभाव पड़े हैं, शैक्षणिक प्रभाव पड़े हैं वह सब मुझसे करवा रहे हैं तो मैं तो इनकी कर्ता हूँ ही नहीं…