जब प्यार किया तो डरना क्या

जो पहली ताक़त मन के ऊपर काम करती है वो उसकी जीव-वृत्ती या मृत्यु-ग्रंथि की है। समय ने आदमी का, जीव का निर्माण किया है। प्राकृतिक विकास की एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़र करके जीव उस रूप में आया है जिस रूप में तुम उसे आज देखते हो। समय ने उसका निर्माण किया है इसीलिए वो कहता है कि समय ही मेरा साथी है। वो समय के प्रति उपकृत अनुभव करता है। वो समय का एहसान मानता है। वो कहता है, “मुझे जो मिला, समय से मिला।” और उसकी बात भी ठीक है। तुम्हें नाक, कान, हाथ, बाल, जिस्म पूरा, अपनी पूरी व्यवस्था समय से ही तो मिली है। विकास की प्राकृतिक प्रक्रिया से ही तो मिली है।

तो मन की बड़ी चाहत रहती है कि समय का ही पालन किया जाए। समय माने बदलाव। समय माने गत और आगत। तो मन खींचा रहता है अतीत की ओर और भविष्य की ओर। अतीत से वो आया है और उसकी इच्छा है कि भविष्य की ओर चला जाए। अतीत का वो अनुसरण करना चाहता है क्योंकि उसे अतीत ने एक चीज़ तो दी ही है। क्या?

उसकी वर्तमान स्तिथि।

वो कहता है, “अतीत ठीक ही था।” क्यों ठीक था? क्योंकि अतीत ठीक ना होता तो हम कहाँ से आते?

जब हम अतीत की ही प्रक्रियाओं का परिणाम हैं तो हमारा होना ही ये साबित करता है कि अतीत अच्छा था। अतीत अच्छा था तभी तो हम आए। तो मन फ़िर भविष्य का निर्माण करना चाहता है और वैसा ही भविष्य चाहता है जैसा अतीत रहा है। ऊपर-ऊपर से भिन्न, भीतर-भीतर बिल्कुल वैसा जैसा पुराना अतीत रहा है।

तो एक तो ये आकर्षण है मन को कि समय में उसकी सत्ता कायम रहे। शरीर बचा रहे, मन बचा रहे और जब ये शरीर नष्ट भी हो तो अपने पीछे अनेक शरीरों को छोड़ जाए।

लेकिन जीव केवल समयगत विकासधारा का परिणाम नहीं है। इंसान के पास बस हाड़-मांस और मन ही नहीं हैं। इंसान इनसे आगे भी कुछ और है। इंसान की जो असलियत है, उसी को हासिल करने के लिए मन व्याकुल रहता है। और जब तक वो उपलब्ध ना हो जाए तो तन और मन मौजूद होते हुए भी अपूर्ण रहते हैं।

मन को तन दे दो, मन को मन दे दो, मन बहुत समय तक संतुष्ट नहीं रह पाएगा। मन को कुछ और भी चाहिए। इससे हमें पता चलता है कि मन को दूसरा आकर्षण किसका है। मन को दूसरा आकर्षण उसका है जो अचल है। क्योंकि मन तो लगातार चल रहा है। जो चल रहा है उसको और चलती हुई चीज़ें क्या तृप्ति देंगे?

मन कुछ ऐसा चाहता है जो स्वयं भी थमा हुआ हो और मन को भी थाम दे। तो आदमी बटा हुआ है। आदमी की हालत बड़ी दयनीय है। एक ओर तो उसको अपने जिस्म का, अपनी सहूलियतों का, अपनी सुविधाओं का, अपनी धारणाओं और मान्यताओं का, अर्थात अपने तन और मन का खयाल रखना है और किसी तरीक़े से ये सुनिश्चित करना है कि तन को और मन को क्षति ना पहुँचे। शरीर सुरक्षित रहे…

आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org

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