जब घरवाले अध्यात्म की बातें न सुनना चाहें

माँ-बाप का जीवन में एक तल पर बहुत ख़ास स्थान होता है। जब कहीं मैं ये देखता हूँ कि माँ-बाप उस तल से आगे जाकर, अनधिकृत रूप से, बच्चे के मन के दूसरे तलों पर कब्ज़ा कर रहे हैं, तब मैं कहता हूँ कि — “तुम ये गलत कर रहे हो। ये तुम अपने अधिकार से आगे की बात कर रहे हो। बच्चे के जीवन में तुम्हारे जगह निश्चित रूप से है, और बड़ी सम्माननीय जगह है तुम्हारी, लेकिन तुम ‘उस जगह’ पर अधिकार जमा लेना चाहते हो जो जगह तुमको नहीं दी जा सकती।”

तब मैं माँ-बाप से ऐसा कहता हूँ।

लेकिन साथ ही साथ जब मैं ये देखूँगा कि बच्चे-बालक, पुत्र-पुत्री, माँ-बाप को वो दर्जा भी नहीं दे रहे जिसके माँ-बाप अधिकारी हैं, तो पुत्र-पुत्री के ऊपर भी मैं बड़ा कड़ा रुख रखूँगा। अध्यात्म का मतलब ये नहीं होता कि माँ -बाप के प्रति आप असम्मान से भर जाओ, बिलकुल भी नहीं। और बातें मैं दोनों तरह की करूँगा। एक ही तरह की बात मत सुन लेना।

इधर कोई बाप बैठा हो जो कहे, “मुझे अपने बच्चे के जीवन पर मालिकाना हक़ चाहिये,” तो मैं उससे कहूँगा, “तुम खुदा हो गए? तुम मालिक कहाँ से हो गए? तुमने अपने बच्चे को अपनी जागीर समझ लिया? तुमने उसके शरीर को जन्म दिया है, या आत्मा के भी तुम बाप हो गए?” ये मैं उस पिता से कहूँगा, जो पिता अपने बच्चे के जीवन पर मालिकाना हक़ रखे। कहे, “हम ही हैं खुदा,” तो मैं कहूँगा, “नहीं! गलत बात कर रहे हो।”

लेकिन अगर इधर कोई ऐसा बच्चा बैठा होगा, जो कहेगा, “माँ-बाप को लेकर मेरे भीतर कोई सम्मान नहीं, कोई आदर नहीं, उन्हें कोई ओहदा मैं देता नहीं,” तो मैं कहूँगा…

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org