जब गीत न अर्पित कर पाओ

पाते स्वयं को विचित्र युद्ध में

रक्षा करते शत्रु जनों की

टूटते न नींद न संग्राम

मोहलत नहीं चार पलों की

इधर भटकते उधर जूझते

गिरते पड़ते आगे बढ़ते

जब गीत न अर्पित कर पाओ

तो ग्लानि न लेना ओ मन

तुम्हारी व्यथित साँसों का

शोर ही संगीत है

हरिताभ वन कभी मरु सघन

प्यास बढ़ी बुझी काया की

कभी समझे कभी उलझे

काट न मिली जग माया की

इधर निपटते उधर सिमटते

सोते जगते मानते जानते

जब गीत न अर्पित कर पाओ

तो ग्लानि न लेना ओ मन

तुम्हारी स्तब्ध आँखों का

मौन ही संगीत है

मृत्युशैय्या पर विदग्ध स्वजन

तलाश रही जादुई जड़ी की

खोजा यहाँ माँगा वहाँ

आस लगाई दैवीय घड़ी की

देखो प्रिय के प्राण उखड़ते

बदहवास यत्न निष्फल पड़ते

जब गीत न अर्पित कर पाओ

तो ग्लानि न लेना ओ मन

तुम्हारे विवश आँसुओं का

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आचार्य प्रशान्त - Acharya Prashant

रचनाकार, वक्ता, वेदांत मर्मज्ञ, IIT-IIM अलुमनस व पूर्व सिविल सेवा अधिकारी | acharyaprashant.org