जब अपने मन और जीवन को देख कर डर लगे
प्रश्नकर्ता: जब अपने मन को और विचारों को देखता हूँ तो डर जाता हूँ, हाथ-पाँव तक काँपने लगते हैं। मन को और अपनी वृत्तियों को देख पाने का साहस कैसे आएगा?
आचार्य प्रशांत: मन मलिन है कोई शक नहीं, वृत्तियों में विकार है कोई शक नहीं, और बात घाटे की है कोई शक नहीं।
तुमको अगर बताया जाए कि तुमको दस लाख का नुकसान हो गया है तो झटका खाओगे। जैसे यहाँ लिखा है न, हाथ-पाँव तुम्हारे काँपने लगेंगे। लेकिन तुमको बताया जाए कि दस लाख का नुकसान हुआ है और पचास लाख का फायदा, तो तुम खुशी मनाओगे। क्यों खुशी मना रहे हो? दस लाख का नुकसान तो दोनों ही स्थितियों में हुआ है न?
जहाँ तक मन की और वृत्तियों की बात है वो तो घाटे का ही सौदा है। जो शरीर लेकर पैदा हुआ, जो शरीरगत वृत्तियाँ लेकर पैदा हुआ, जो इस मन और उससे सम्बंधित सारे भाव और सारे विकार लेकर पैदा हुआ, वो तो पैदा ही घाटे में हुआ है। तो वो घाटा तो रहेगा ही रहेगा। दस लाख का घाटा लिखा होता है हर बच्चे के माथे पर जब वो पैदा होता है। उस घाटे का मतलब समझ रहे हो न?
एक घाटे की ही चीज पैदा हो गई है। जो वो लेकर आया है अपने साथ वो क्या है? घाटा ही घाटा! तो वो तो रहेगा ही रहेगा। वो तयशुदा है।
हमारे साथ कुछ ऐसा पैदा होता है जो हमें बड़ा घटा कर रखता है, जो हमें क्षुद्र करके रखता है। जो चीज तुम्हें घटा कर रखे वही चीज घाटे की। घाटा वहीं से आता है न? जो तुम्हें घटाकर — घटाकर माने छोटा करके — सीमित करके रखे उसी को कहते हैं घाटा। तो वो घाटा तो है ही है। वो सबके साथ लगा हुआ है…